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________________ ११५ -५३ ] ततीयः स्तबकः $४९ ) कदाचिदयं व्योमपथप्रकाशमानं सूर्यप्रभदेवविमानं दृष्ट्वा जातिस्मरतामासाद्य प्रबुद्धः प्रियया सह दूरादागच्छन्ती चारणमुनीन्द्री समीक्ष्य नलिन्या समं दिवस इव सूर्यप्रतिसूर्यो प्रत्युद्गच्छन्नानन्दबाष्पबिन्दुसंदोहैस्तत्पादौ क्षालयन्निव प्रणम्य सुखोपविष्टौ तावेवं पप्रच्छ । ६५०) अहो मुनीन्द्रावरविन्दबन्धू युवां ध्रुवं यन्मम चित्तपद्मम् । भावत्कपादागमजातबोधं प्रसादमाध्वीकरसं प्रसूते ॥२५।। $ ५१) भगवन्तौ ! युवां क्वत्यौ कुतस्त्यौ किं नु कारणम् । युष्मदागमने ब्रूतमिदमेतत्तथाद्य' मे ॥२६॥ ६५२) इति प्रश्नं समाकर्ण्य मुनिक्यानभाषत । दन्तांशुमञ्जरीपुजैदिशः सुरभयन्निव ।।२७।। ६५३) अहं किल पुरा भवदीयमहाबलभवे भवत्सचिवाग्रणोः स्वयंबुद्धः कर्मनिबर्हणस्य १० जैनधर्मस्योपदेष्टा त्वद्वियोगाज्जातनिर्वेदो दीक्षित्वा सौधर्मकल्पविलसमाने स्वयंप्रभविमाने मणिचूलनामा सुरः संजातः सागरोपमायुष्कः। ततः प्रच्युतो जम्बूद्वीपपूर्वविदेहपुष्कलावतीविषयपरिशोभितपुण्डरीकिणीनगर्यां सुन्दरीप्रियसेनाह्वययो राजदम्पत्योः प्रीतिकराख्यातो ज्येष्ठः सुतः समभवम् । विलासास्तैः चिक्रीडतु: केलिं चक्रतुः ॥ वसन्ततिलकाछन्दः ॥२४॥ $ ४९) कदाचिदिति-स्पष्टम् । $ ५०) अहो इति-अहो मुनीन्द्रो मुनिराजो युवां ध्रुवं निश्चयेन अरविन्दबन्धू सूर्यो स्थः, यत् यस्मात् कारणात् मम १५ चित्तपञ हृदयारविन्दं भावत्कपादागमेन भवच्चरणागमनेन पक्षे भवत्किरणागमनेन जातबोधं समुद्भूतज्ञानं पक्षे समुद्भूतविकासं सत् प्रसाद एव माध्वीकरसस्तं परमाह्लादमकरन्दं प्रसूते प्रकटयति । रूपकालंकारः, उपजातिच्छन्दः ॥२५॥ ५१) भगवन्ताविति-क्वत्यो क्वभवी, कुत आगतो कुतस्त्यो 'अव्ययात्त्यप्' इति त्यप् प्रत्ययः । शेषं स्पष्टम् ॥२६।। ५२) इतीति-इतीत्थं प्रश्नं समाकर्ण्य ज्यायान् ज्येष्ठो मुनिः दन्तांशमञ्जरीणां पुजास्तै दन्तदीधितिमञ्जरीसमूहै: दिश: ककुभः सुरभयन्निव सुगन्धयन्निव अभाषत जगाद २० ॥२७॥ ५३) अहं किलेति-कर्मनिबर्हणस्य कर्माणि ज्ञानावरणादीनि तेषां निबर्हणस्य निवर्तकस्य । $४९ ) कदाचिदिति-किसी समय यह वनजंघका जीव, आकाशमार्गमें प्रकाशमान सूर्यप्रभदेवके विमानको देखकर जातिस्मरणको प्राप्त होता हुआ प्रबोधको प्राप्त हुआ। उसी समय दूरसे आते हुए दो चारणऋद्धिधारक मुनिराजोंको उसने प्रियाके साथ देखा । जिस प्रकार दिवस कमलिनीके साथ सूर्य और उसके प्रतिबिम्बकी अगवानीके लिए जाता २५ है उसी प्रकार वह आर्य भी अपनी प्रियाके साथ उन मुनिराजोंकी अगवानीके लिए आगे गया। हर्षजनित अश्रुबिन्दुओंके समूहसे उनके चरणोंको धोते हुए की तरह प्रणाम किया तथा सुखसे बैठे हुए उन मुनिराजोंसे इस प्रकार पूछा। $ ५० ) अहो इति-अहो मुनिराजो ! आप निश्चित ही सूर्य हैं क्योंकि हमारा यह हृदयरूपी कमल आपके पाद-चरण (पक्षमें किरण ) के आगमनसे विकासको प्राप्त होता हुआ प्रसन्नतारूपी मकरन्दको उत्पन्न कर रहा ३० है ॥२५॥ ६५१ ) भगवन्ताविति-हे भगवन् ! आप दोनों कहाँ के हैं तथा कहाँसे आ रहे हैं ? आपके आगमनमें कारण क्या है ? यह सब आप मेरे लिए कहिए ॥२६॥ ६५२) इतीतिइस प्रकारके प्रश्नको सुनकर ज्येष्ठ मुनिराज दाँतोंकी किरणरूपी मंजरीके समूहसे दिशाओंको सुगन्धित करते हुए की तरह बोले ॥२७।। ६ ५३) अहं किलेति-मैं पूर्वभवमें जब कि आप . महाबल पर्यायमें थे आपका प्रधानमन्त्री स्वयंबुद्ध था। मैंने आपको कर्मों के नाशक जैनधर्मका ३५ १. -त्त्वयाद्य मे क० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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