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________________ -९९ ] द्वितीयः स्तबकः न युक्तेति मत्वा किल तत्र मुक्ताहारं घटयन्ती, रतितन्त्र रहस्यप्रतिपादकमनोहरारावशोभिततया कामस्य रसनैवेयं लेखन प्रमादेन 'रशना' जातेति कविजनैरुत्प्रेक्ष्यमाणां रशनां मध्यदेशे तन्वाना, कुसुमशरसरः कलहंसको हंसको पदयुगले परिकल्पयन्ती चिराय तां मण्डयामास । ९९) महनीयप्रभापूरैर्महार्धमणिभूषणैः । पुत्रं सा भूषयामास वज्रजङ्घ वसुंधरा ॥५६॥ Jain Education International ८९ मुक्ताहारं त्यक्ताहारं भोजनाभावमित्यर्थः घटयन्ती कुर्वन्ती । पक्षे विवेकवार्तानभिज्ञस्य पीवरत्वाद्भेदचर्चापरिचितस्य, क्षमाधरकलितविद्वेषस्य काठिन्येन क्षमाघरेण पर्वतेन सह कलितो विद्वेषो येन तस्य, सूर्ये आदर ः सूर्यादरस्तेनाञ्चितं सूर्यसन्मानसहितं साधुचक्रं प्रशस्त चक्रवाकं निन्दतः स्वसौन्दर्येण तिरस्कुर्वतः सततं शस्वत् उत्तुङ्गत्वेन ऊर्ध्वमेव पश्यतः अपतितस्येति भावः, कुचमण्डलस्य विगतो मुक्ताहारो मौक्तिकसरो यस्य तस्य भावो विमुक्ताहारता मौक्तिकहाराभाव इत्यर्थः न युक्ता नोचितेति मत्वा किल तत्र कुचमण्डले मुक्ताहारं १० मौक्तिकसरं घटयन्ती स्थापयन्ती, रतितन्त्रस्य सुरतशास्त्रस्य यद् रहस्यं गूढग्रन्थिस्तस्य प्रतिपादको निरूपको यो मनोहरारावः सुन्दरशब्दस्तेन शोभिततया कामस्य मदनस्य रसनैवेयं जिह्वैवेयं लेखन प्रमादेन लेखनस्यानवधानतया 'रशना' जातेति कविजनैः कविसमूहैः उत्प्रेक्ष्यमाणां कल्प्यमानां रशनां मेखलां मध्यदेशे कटिप्रदेशे तन्वाना विस्तारयन्ती धारयन्तीत्यर्थः, कुसुमशरस्य कामस्य सरसः कासारस्य कलहंसको कादम्बो हंसको नूपुरी पादकटको वा पदयुगले चरणयुगे परिकल्पयन्ती धारयन्ती चिराय दीर्घकालपर्यन्तं तां श्रीमतीं मण्डयामास भूषया - १५ मास । श्लेषविरोधाभासोपमारूपकोत्प्रेक्षादयोऽलंकाराः । ९९ ) महनीयेति - वसुंधरा वज्रजङ्घ-जननी पुत्रं वज्रजङ्घ महनीयः श्लाघनीयः प्रभापूरो येषां तैः महार्घाणि महामूल्यानि यानि मणिभूषणानि रत्नालंकर ५ नाकरूपी तिलपुष्पके अंचल में सुशोभित ओसकी एक बूँद ही हो। उसने उसके स्तनमण्डलपर मुक्ताहार - आहारका परित्याग यह विचारकर ही किया था कि यह स्तनमण्डल विवेकवार्तानभिज्ञ - अच्छे-बुरेके विवेकसे अपरिचित है, क्षमाधरकलितविद्वेष - शान्त मनुष्योंके साथ द्वेष करता है, सूर्यादराश्चित - आचार्योंमें आदरसे युक्त साधुचक्र – साधुसमूहकी निन्दा करता है और गर्वसे सदा ऊपरको ही देखता है इसलिए इसकी विमुक्ताहारता - भोजनसे सहितता ठीक नहीं है ( पक्ष में- यह स्तनमण्डल विवेकवार्तानभिज्ञ - स्थूलता के कारण भेद सम्बन्धी चर्चासे अपरिचित है अर्थात् दोनों स्तन एक-दूसरे से सटे हुए हैं, कठोरताके कारण क्षमाधरकलितविद्वेष - पर्वतके साथ बैर करनेवाला है, अर्थात् पर्वतसे भी कहीं अधिक कड़ा है, सूर्यादराञ्चित - सूर्य में प्रेम रखनेवाले साधुचक्र – उत्तम चकवाकी निन्दा करता है अर्थात् चकवासे भी कहीं अधिक सुन्दर है, और उत्तुंगताके कारण सदा ऊपरको ही देखता है अर्थात् अभी इसमें पतन प्रारम्भ नहीं हुआ है इसलिए इस सुन्दर स्तनमण्डलकी विमुक्ताहारता - मोतियोंके हार से रहितता ठीक नहीं है यह विचारकर ही मानो उसने उसके स्तनमण्डलपर मुक्ताहार - मोतियोंके हारकी योजना की थी ) । संभोगशास्त्र के रहस्य - गूढ अभिप्रायको प्रकट करनेवाले मनोहर शब्द से सुशोभित यह कामदेवकी रसना - जिह्वा ही है लिखनेके प्रमादसे 'रशना' हो गयी है इस तरह कवि लोग जिसकी उत्प्रेक्षा कर रहे थे ऐसी रशना - करधनी उसके मध्यदेश में पहिनायी थी, और कामदेवके सरोवर के कलहंस पक्षी के समान नूपुर अथवा पाद कटक दोनों पैरोंमें पहिनाये थे । इस तरह लक्ष्मीमतिने चिरकाल तक श्रीमतीको अलंकृत किया था । ६९९ ) महनीयेति - -उधर वसुन्धराने अपने पुत्र वज्रसंघको प्रशंसनीय ३० १२ For Private & Personal Use Only २० २५ ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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