________________
खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम mmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
इस श्लोक में मुख्यत: यह तत्त्व प्रतिपादित किया गया है कि जब कर्मों के आने का प्रवाह बन्द हो जाता है, आत्मप्रदेशों के साथ अभिनव कर्मों का संश्लेष नहीं होता है तो आत्मा को एक मार्ग प्राप्त हो जाता है जिससे उसकी उन्नति का क्रम निर्धारित हो जाता है।
इस श्लोक में जो कहा गया है इसमें एक बात और योजनीय है। संवर द्वारा नूतन कर्मों का आना तो अवरुद्ध हो जाता है किन्तु जीव द्वारा पहले बाँधे हए कर्म अथवा आत्म-संश्लिष्ट कर्म जब तक क्षीण नहीं होते तब तक उसकी बन्धन से सर्वथा मुक्ति नहीं हो पाती। संचित कर्मों के क्षय के लिए तपश्चरण मूलक साधना-पथ का विधान किया गया है। उससे कर्मों का निर्जरण होता जाता है। दीवाल पर गीली मिट्टी के लगे हुए कण जैसे धूप से सूख कर झड़ते जाते हैं उसी प्रकार तपश्चरण द्वारा संचित कर्म, आत्मसंश्लिष्ट कर्म पुद्गल निर्जीर्ण होते जाते हैं। इस तत्त्व को जैनदर्शन में निर्जरा कहा गया है। इसी तत्त्व के आधार पर आत्मपुरुषार्थ साध्य साधना-पथ का बहुमुखी विकास हुआ।
निर्जरा तत्त्व के बारह भेदों में ग्यारहवाँ ध्यान है। वैसे तो निर्जरा के सभी भेद कर्मक्षय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, आचरणीय हैं, किन्तु इनमें ध्यान का अत्यन्त महत्त्व है क्योंकि ध्यान साधक को एक ऐसी पवित्र भूमिका प्रदान करता है, जिसके परिणामस्वरूप निर्जरा तत्त्व के अन्तर्गत प्रतिपादित सभी तपों को क्रमश: साधने की मानसिकता उत्पन्न होती है। यही कारण है कि ध्यान का विवेचन आगमों तथा उनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि व्याख्या साहित्य के ग्रन्थों में विशेष रूप से हुआ है। इतना ही नहीं, ध्यान पर स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना भी हुई। योग और ध्यान की भारतीय परम्परा :
भारत में ध्यान साधना के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि के 'योगसूत्र' का विशेष महत्त्व है। उन्होंने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का अष्टांग योग के रूप में प्रवर्तन किया। इनमें पहले पाँच शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास आदि के प्रमार्जन हेतु प्रयोजनीय हैं तथा अन्तिम तीन धारणा, ध्यान, समाधि अन्त:प्रमार्जन एवं विशोधन के हेतु हैं।
.
..
PRAST
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org