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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
दैहिक, मानसिक एवं कायिक विकास की दृष्टि से पतंजलि की यह साधना पद्धति काफी आकर्षक बनी। लोगों का, विशेषत: जिज्ञासु और मुमुक्षु जन का इस
ओर विशेष रूप से ध्यान गया। इसमें उनकी रुचि भी विशेष रूप से बढ़ती गई। इस साधना पद्धति का केन्द्र आत्मा है। अपने आन्तरिक उद्यम से ही यह सिद्ध होती है। इसलिए अन्यान्य धर्मों के विज्ञजनों, आचार्यों का भी ध्यान गया। फलस्वरूप बौद्ध धर्म आदि श्रमण परम्परा के समुदायों में भी इस ओर विशेष अभिरुचि उत्पन्न हुई। अपने साधना तत्त्वों को यथासंभव इस पद्धति द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ।
लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी में भारत के पूर्वांचल बिहार में बौद्ध साधकों में साधना की एक योगानुगत विशेष शैली का प्रादुर्भाव हुआ। वज्रयान, सिद्धयान या सहजयान के रूप में वह प्रसिद्ध है। इसे बौद्ध धर्म की महायान साधना के क्षेत्र में उत्तरवर्ती विकास कहा जा सकता है। वे साधक जो इसमें निष्णात हो जाते थे, वे सिद्ध कहे जाते थे। इसी कारण इसे सिद्धयान कहा गया। वज्र की भाँति यह साधना का अति कठोर पथ था इसलिए इसकी वज्रयान संज्ञा हुई। सहजता या स्वाभाविकता मूलक होने से इसे सहज यान कहा गया। .
इनकी साधना में हठयोग का भी समन्वय था। इनका साहित्य दोहाकोश, चर्यागीति के रूप में पूर्वी अपभ्रंश में प्राप्त होता है। दोहाकोशों में उन्होंने अत्यन्त सरल शैली में अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। चर्यागीतियों में गेय पदों द्वारा अपनी अनुभूतियाँ प्रगट की हैं। सरहपा, कण्हपा, तिलोपा आदि इस परम्परा के मुख्य साधक हुए हैं। यह परम्परा आगे चलकर विकारग्रस्त हो गई। नाथयोगियों की परम्परा में हठयोग का प्राधान्य था। गोरखनाथ इस परम्परा के महान् योगी थे जिन्होंने भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भ्रमण कर योग का प्रचार किया। योगियों के लिए ये ब्रह्मचर्य पर बहुत अधिक बल देते थे। उनके ‘गोरक्ष पद्धति' आदि अनेक ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं।
आचार्य एवं मनीषी सन्त सदैव बड़े व्यापक दृष्टिकोण वाले रहे हैं। उन्होंने अपने सिद्धान्तों के अनुरूप उन सभी बातों को स्वीकार करने से कभी परहेज नहीं किया जो जन-जन के आत्म-कल्याण के रूप में सहायक हों। इसका कारण यह है कि जैन दर्शन ऐसा मानता है कि सम्यक्त्वी द्वारा परिगृहीत मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत
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