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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड : द्वितीय खण्ड:-द्वितीय प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान मोक्ष, परिनिर्वाण या मुक्ति साधक का परम लक्ष्य है। यह वह स्थिति है जहाँ आत्मा सर्वथा दु:खविमुक्त परम शान्त, सच्चिदानन्द स्वरूप, बन्धनविमुक्त होकर सर्वथा परमात्म स्वरूप बन जाती है। संसारी जीव अनादि काल से कर्मबद्ध है। कर्मों के पौद्गलिक आवरणों द्वारा जीव का ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं आनन्दमय स्वरूप आवृत रहता है। जब तक ये आवरण बने रहते हैं, जीव अपनी शुद्ध स्वाभाविक स्थिति से दूर रहता है, वैभाविक स्थिति में बना रहता है, तब तक जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करता रहता है। ये बन्धन तभी समाप्त होते हैं जब साधना द्वारा जीव समस्त कर्मों को क्षीण कर डालता है। इसलिए कहा गया है- कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। कर्मक्षय के लिए संवर और निर्जरा मूलक साधना का जैनदर्शन में विशद विवेचन प्राप्त होता है। पूर्व संचित और वर्तमान में बँधने वाले कर्मों का सर्वथा अपगम हो जाने से आत्मा की कर्ममुक्तता सिद्ध होती है। क्षण-प्रतिक्षण आत्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट होने वाले कर्मों के अवरोध हेतु आत्मा का जो अन्त:पराक्रम घटित होता है उसे संवर कहा जाता है। सरोवर में जिस प्रणालिका से वर्षा आदि का जल भरता रहता है वह उस प्रणालिका को रोक देने के बाद बन्द हो जाता है, यही स्थिति संवर की है। कर्मों के आने के मार्ग को आस्रव कहा गया है वह संवर से रुक जाता है। जैन साहित्य में यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है आम्रवो बन्धहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम्। इतीयमाहती दृष्टिरन्यत् सर्वप्रपञ्चनम्॥ अर्थात् आस्रव बन्ध का हेतु है तथा संवर मोक्ष का कारण है। जैनदर्शन का यही सारभूत दृष्टिकोण है और तो सब विस्तार मात्र है। 1. तत्त्वार्थ सूत्र 10.3 पृ. 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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