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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
में लक्ष्य की सिद्धि में ही पूर्णत: भेद दृष्टिगोचर होता है। हीनयान में निर्वाण-प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य बताया गया है। अर्हत् पद-प्राप्ति द्वारा वह सिद्ध होता है। अर्हत केवल अपने क्लेश की निवृत्ति की अभिलाषा रखता है। वह अपने को अपने में ही सीमित रखता है। निर्वाण की प्राप्ति चित्त के राग आदि क्लेशों को दूर करने से होती है। इस कार्य में साधक को ध्यानयोग से यथेष्ट सहायता प्राप्त होती है। ध्यान से प्राप्त समाधि के बिना साधक का मन वासनामय जगत् का अतिक्रमण नहीं कर सकता। वह रूप धातु में नहीं जा सकता। समाधि द्वारा साधक रूप धातु में जा सकता है। चार ध्यानों का संबंध रूप धातु से है। इनमें से प्रत्येक आयतन के साथ ध्यान का संबंध है। प्रथम में आकाश की अनन्तता का, द्वितीय में विज्ञान की अनन्तता का, तृतीय में अकिञ्चनता की अनन्तता का और चतुर्थ में भवसंज्ञान की अनन्तता का ध्यान किया जाता है। चौथे आयतन को भवाग्र कहा जाता है। साधक स्थूल जगत् से अपने ध्यान का आरम्भ करता है और उसके बल पर सूक्ष्म जगत् में संप्रविष्ट होता है। जगत् उसके लिए स्वल्प, सूक्ष्म बनता जाता है, इस ध्यानक्रम से वह एक बिन्दु पर पहुँचता है जहाँ जगत् की समाप्ति होती है। वही बिन्दु भवाग्र कहा गया है। वहाँ पहुँचने के पश्चात् उसे निर्वाण में कूदने में, निमग्न हो जाने में जरा भी देर नहीं लगती। निर्वाण की प्राप्ति होते ही साधक अर्हत् पद पा लेता है, वह कृतकृत्य हो जाता है। इस प्रकार ध्यान तद्जनित समाधि, निर्वाण का अनन्य हेतु है।107
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महायान में ध्यान
___ महायान का लक्ष्य हीनयान से भिन्न है। उसका अन्तिम उद्देश्य बुद्धत्व की प्राप्ति है। यह एक जन्म के व्यापार पर अवलम्बित नहीं है। अनेक जन्मों पर्यंत पुण्यसंभार का संचय करता हुआ साधक ज्ञान-संभार की प्राप्ति करता है, अत्यधिक ज्ञानसंपन्न होता है। महायान सम्प्रदाय में साधक को सबसे पहले बोधि चित्त को ग्रहण करना होता है। जैन दर्शन में जिसे सम्यक्बोधि या सम्यक्ज्ञान कहा गया है, बोधिचित्त का वही आशय है। जब साधक को बोधिचित्त की प्राप्ति हो जाती है तो उसे पारमिताओं का अभ्यास करना होता है, जिसे उसकी आवश्यक चर्या कहा गया है। पारमिता में पारम्+इता ये दो शब्द हैं। पारम् का अर्थ 'परिपूर्णता' और इता का 107. बौद्धदर्शन मीमांसा पृ. 333-334 ~~~~~~~~~~~~~~~ 44 ~~~~~~~~~~~~~~~
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