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________________ खण्ड : प्रथम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम अर्थ 'पहँचा हआ है। पूर्णत्व को पारमिता कहा जाता है। पालि भाषा में इसके लिए पारमी शब्द का प्रयोग हुआ है। पारमिताओं के दान, शील, नैष्कर्म, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री, उपेक्षा ये नाम हैं।108 ऐसा कहा जाता है कि इन्हीं पारमिताओं के द्वारा शाक्यमुनि तथागत बुद्ध ने 550 बार विविध रूपों में जन्म लेकर सम्यक् संबोधि की लोकोत्तर संपत्ति अधिगत की। ऐसा भी माना जाता है कि पारमिताओं का अनुष्ठान केवल मनुष्य-जन्म में ही हो, यह आवश्यक नहीं, जातक ग्रन्थों से यह प्रकट है कि बुद्ध ने तिर्यंच योनि में भी जन्म लेकर पारमिताओं का परिशीलन किया। जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्दृष्टि साधक की वह भव-परम्परा, जिसमें वह अपने पूर्वार्जित कर्मों का भोगक्षय करता हुआ उत्तरोत्तर आत्मोज्ज्वलता की ओर प्रयाण करता है, पारमिताओं से तुलनीय है। ज्ञान - संभाग का अधिगम होने से वह प्रज्ञा-पारमिता का अधिकारी बनता है। प्रज्ञा पारमिता का तात्पर्य प्रकृष्ट, उत्तम, साधनापरक ज्ञान का अभ्युदय है। उसके बिना बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है, प्रज्ञा पारमिता तक पहुँचने के लिए समाधि की अत्यन्त आवश्यकता है। एतदर्थ साधक को अनेक भूमियाँ पार करनी पड़ती हैं। महायान सूत्रालंकार में वे प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुक्ति, दुरङ्गमा, अचला, साधुमती, धर्ममेध्या के नाम से ये अभिहित हुई हैं।109 महायान के सिद्धान्तानुसार बुद्धत्व पद की प्राप्ति के साधना-मार्ग में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। भूमिकाओं को पारकर साधक समाधि की स्थिति में पहुँचता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार ध्येय विषय दो प्रकार का माना गया है वस्तुरूप तथा कल्पनामात्र। वस्तुरूप स्थूल है। कल्पनामात्र सूक्ष्म है, वह बाह्य वस्तुरूप नहीं होता। वस्तु के स्वरूप की अपेक्षा वस्तु की प्रतीति या कल्पना पर चित्त लगाने से समाधि की अवस्था उत्पन्न होती है। उसके लिए 10 अनुस्मृतियों का निरूपण किया गया है- बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, संघानुस्सति, शीलानुस्सति, यागानुस्सति, देवतानुस्सति, मरणानुस्सति, कामगतानुस्सति, आनापानानुस्सति, उपस्समानुस्सति। इन अनुस्मृतियों में क्रमश: बुद्ध, धर्म, संघ के गुणों पर शील, त्याग, देवलोक, मृत्यु, कायमिश्रित 108. वही, पृ. 125 109. वही, पृ. 336-337 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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