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खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
यहाँ कुशल चित्त का संबंध रूपावचर, अरूपावचर एवं लोकुत्तर चित्तों से ही है। 104 कुशल चित्त के आलम्बन को कम्मट्ठान भी कहा गया है। कम्मट्ठानों की संख्या बौद्ध धर्म में चालीस कही गयी है - दस कसिण (कृष्ण), दस अशुभ, दस अनुस्मृति, चार ब्रह्मविहार, एक संज्ञा, एक व्यवस्थान तथा चार आरुप्य हैं। इनकी प्राप्ति में बाधक तत्त्व हैं- पाँच कामच्छन्द, व्यापाद, थीनमिद्ध, उद्धच्च कुक्कुच्च एवं विचिकिच्छा, इनका उपशम क्रमश: समाधि, प्रीति, वितर्क, सुख और विचार से होता है।105
अरूपावचर ध्यान
रूपावचर ध्यान की चतुर्थ अथवा पंचम अवस्था के बाद यद्यपि निर्वाण का साक्षात्कार संभव है फिर भी साधक निर्वर्ण और निराकार आलम्बन पर ध्यान करता है, यही अरूपावचर ध्यान है। इसकी चार अवस्थायें होती हैं।
____ 1. आकाशानञ्चायतन - इसमें साधक अनन्त आकाश पर विचार करता है।
2. विज्ञानानञ्चायतन - इस अवस्था में अनन्त आकाश स्थूल प्रतीत होने लगता है और विज्ञान सूक्ष्म लगने लगता है।
3. आकिञ्चन्यायतन - इस अवस्था में आकिञ्चन्यायतन पर कुछ नहीं, ‘शून्य शून्य', ध्यान किया जाता है।
4. नैव संज्ञा-असंज्ञा आयतन - इस अवस्था में भवसंज्ञान की अनन्तता पर न संज्ञा और न असंज्ञा आरम्भण पर ध्यान किया जाता है।106
इसके अतिरिक्त बौद्ध ध्यान की विधियाँ जापान (जेन - झान) बर्मा, थाईलैण्ड, तिब्बत, चीन, कोरिया इत्यादि की बौद्ध परम्पराओं में भी पाई जाती हैं। हीनयान में ध्यान
ध्यान का उपयोग लक्ष्य की सिद्धि के लिए होता है। हीनयान और महायान 104. वही, नवनीत टीका 105. विसुद्धिमग्ग, पृ. 95 106. (क) विसुद्धिमग्ग परिच्छेद 10 तथा 3 (ख) अभिधम्मत्थ संगहो 1.11 ~~~~~~~~~~~~~~~~ 43 ~~~~~~~~~~~~~~~
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