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________________ भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा खण्ड : प्रथम । इसमें विषयवस्तु के लक्षणों पर विचार किया जाता है। 'मग्ग' में उसका कार्य पूर्ण होता है और उसकी निष्पत्ति फल में होती है। इसी को लोकोत्तर ध्यान कहते हैं जो निर्वाण का विशिष्ट रूप माना जाता है।100 विपस्सना में सात प्रकार की विशुद्धि पायी जाती है - शील विशुद्धि, चित्त विशुद्धि, दृष्टि विशुद्धि, कडा वितरण विशुद्धि, मग्गामग्ग ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि, परिषदा ज्ञान दर्शन विशुद्धि तथा ज्ञान दर्शन विशुद्धि।101 ध्यान का भेद - भेदाङ्ग विवाद का विषय रहा है। सुत्तपिटक में ध्यान के चार भेद मिलते हैं, जबकि अभिधम्म पिटक में उसे पाँच भागों में विभाजित किया गया है। रूपावलम्बन पर चित्त की ये विभिन्न अवस्थाएँ हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं - 1. वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता से सहित प्रथम ध्यान । 2. प्रीति, सुख और एकाग्रता से सहित द्वितीय ध्यान। 3. सुख और एकाग्रता से सहित तृतीय ध्यान। 4. एकाग्रता से सहित चतुर्थ ध्यान।102 ध्यान के उक्त प्रकारों में क्रमश: एक-एक गुण कम होता जाता है - अर्थात् - प्रथम ध्यान में सुत्त परम्परा की दृष्टि से वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता ये पाँचों अंग विद्यमान रहते हैं। द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार को छोड़ शेष गुण उपस्थित रहते हैं। तृतीय ध्यान में प्रीति नहीं रहती और चतुर्थ ध्यान में सुख का अभाव होकर मात्र एकाग्रता रह जाती है। 'विसुद्धिमग्गो' में इनकी विस्तार से व्याख्या की गई है। 'अभिधर्म परम्परा' में रूपावचर ध्यान पाँच माने जाते हैं। उपेक्षा-एकाग्रता सहित पंचम रूपावचर ध्यान भी बताया गया है।103 100. स धम्म पकासिनी, पृ. 196 101. अभिधम्मत्थ संग्रह, कम्मट्ठान संग्रह 102. विसुद्धिमग्ग परिच्छेद - 4 103. अभिधम्मत्थ संगहो 1.17 ~~~~~~~~~~~~~~~ 42 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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