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________________ खण्ड : प्रथम PPP प्रयत्न किया है कि समाधि का संबंध शुभ भावों को एकाग्र करने से है । उपर्युक्त परिभाषा से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि समाधि में सिर्फ कुशल कर्मों से ही संबंध है जबकि ध्यान कुशल और अकुशल दोनों ही भावों से सम्बद्ध है। अतः ध्यान का क्षेत्र समाधि की अपेक्षा विस्तृत है। बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान का अर्थ किसी विषय पर चिन्तन करना है।” परन्तु अभ्यास के बिना कुछ भी संभव नहीं है, चित्त का अभ्यास ही ध्यान है ।" बाह्य विषयों की आसक्ति से मुक्त होना ही ध्यान है। 7 जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम बौद्ध योग में समाधि को प्राप्त करने के लिए ध्यान का प्रतिपादन किया गया है। 98 बुद्धघोष ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है : 1. जो चित्त की विषयभूत वस्तु पर निकट से चिन्तन करता है, वह ध्यान ( आरम्भण उप-नि-ज्झान), और । (ज्झान) । 2. ध्येय वस्तु के लक्षणों की परीक्षा करने वाला ध्यान ( लक्खण - उप-नि इनमें से प्रथम आरम्भण- उपनिज्झान आठ प्रकार का है। चार रूपावचर ध्यान और चार अरूपावचर ध्यान । इन्हें समापत्ति भी कहा जाता है । उपचार समाधि की प्रारम्भिक भूमिका है और शेष उसकी विकसित अवस्थाएँ है । लक्खण उपनिज्झान के तीन भेद हैं- विपस्सना, मग्ग और फल । विपस्सना में प्रज्ञा, ज्ञान और दर्शन होता है । साधारणत: त्रिपिटक में विपस्सना का प्रयोग समय के साथ मिलता है- समथो च विपस्सना 199 95. समन्तपासादिका, पृ. 145-146 96. ध्यान सम्प्रदाय पृ. 81 97. दि सूत्र ऑव - वे लेग, पृ. 47 98. दीर्घनिकाय 1.2, पृ. 28-29 99. दीर्घनिकाय, 3 पृ. 273, मज्झिमनिकाय 1. पृ. 495 संयुक्त निकाय, पृ. 360 इत्यादि । Jain Education International 41 ~~~ For Private & Personal Use Only of www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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