SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड : प्रथम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम नाम योग है। वह समस्त दु:खों का नाशक है, ऐसा जानकर योगी को विरक्त चित्त से उसमें संलग्न होना चाहिए। संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का पूर्णरूप से त्याग करके मन से इन्द्रियसमूह को नियन्त्रित करके, धैर्यपूर्वक संसार से धीरे-धीरे उपरत होता हुआ मन को आत्मस्वरूप में स्थिर करता है, फिर कुछ भी चिन्तन नहीं करता है। यदि मन अस्थिर है फिर विषयों में चंचल हुआ है तो उसे रोककर परमात्मा में ही निरुद्ध करें।78 सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव में स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबको समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को अपने स्वरूप में स्थित देखता है। जो समभाव में स्थित होकर रागद्वेषादि से शून्य, पूरे विश्व में अपनी आत्मा के समान ही सबके सुख-दुःख की भावना करता है और सर्वत्र परमात्मा को निरन्तर देखता है वही सर्वश्रेष्ठ योगी है।'' ध्यानी योगी कौन हो सकता है, इसके लिए गीता के 18वें अध्याय में स्पष्ट विवेचन है - विशुद्ध बुद्धि से युक्त, सात्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करने वाला, एकान्त देश का सेवन करने वाला, सात्विक धारणा शक्ति के द्वारा अन्त:करण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में करने वाला, अहंकार, बल, घमंड, काम - क्रोध और परिग्रह का त्याग करने वाला, ममता रहित शान्तियुक्त, ध्यान योग में परायण पुरुष, सच्चिदानन्द ब्रह्मन् (आत्मा) में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है।80 श्रीमद्भगवद्गीता पवित्र एवं प्रभावशाली ग्रन्थ है। इसमें पद-पद पर योग के द्वारा भगवत्साक्षात्कार का ही आनन्द प्राप्त होता दिखता है। इसमें ध्यान विधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि शुद्ध एवं पवित्र भूमि पर आसन स्थापित कर उसके ऊपर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे। योग में स्थिर होकर, 78. वही, 6.23-26 79. वही, 6.29-30 80. वही, 18, 51-53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy