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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
में समाधि की पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती।
पतंजलि ने ध्यान का लक्षण बताते हुए लिखा है - "तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्"47 उस देश विशेष में, जिसमें साधक ने धारणा को सिद्ध किया है, चित्त का निरन्तर सदृशप्रवाह ही ध्यान कहा जाता है। एकतानता से तात्पर्य है चित्त की एकाग्रता, ऐसा वाचस्पति मिश्र का मत है8, भाष्यकार ने भी वृत्त्यन्तर से अबाधित सदृश प्रवाह को ही ध्यान माना है।49
जिस प्रकार ध्यानावस्था में चित्त की पूर्ण एकाग्रता धारणा पर विजय प्राप्त किये बिना असंभव बतायी गयी है उसी प्रकार अन्तिम योगांग समाधि के लिए ध्यान पर विजय प्राप्त करना भी साधक के लिए अनिवार्य है।
पातंजल योग में व्याख्यात धारणा, ध्यान और समाधि का जैनयोगसम्मत ध्यान में समावेश हो जाता है।
चित्त की एकरूपता /एकाग्रता / स्थिरता हेतु चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध अपेक्षित है। वृत्तियों के प्रकारों के बारे में योगसूत्र में उल्लेख है। (वृत्तयः पञ्चतव्य: क्लिष्टाक्लिष्टाः) वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं, इनमें कोई क्लिष्ट होती हैं, जैसे राग-द्वेषादि और जो अविद्या आदि पाँचों क्लेशों की नाशक और गुणाधिकार की विरोधी विवेक ख्यातिरूप वृत्ति होती है, वह अक्लिष्ट कहलाती है। पाँच वृत्तियों के नाम हैं 50 प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
जिनके द्वारा मनुष्य अनेक प्रकार का ज्ञान अर्जित करता है, वे प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाण कहलाते हैं। मिथ्याज्ञान विपर्यय कहलाता है। विविध कल्पनाओं को विकल्प कहा जाता है। नींद निद्रा है तथा स्मृति स्मरण है, जो प्रमाणादि चारों वृत्तियों से प्रभावित रहती हैं।1 इन वृत्तियों के अतिरिक्त अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि पाँच क्लेशों के निरोध का भी वर्णन 47. योगसूत्र 3.2 48. एकतानतैकाग्रता तत्त्ववैशारदी पृ. 279 49. व्यास भाष्य पृ. 279 (सदृश: प्रवाह: प्रत्ययान्तेण परामृष्टो ध्यानम्।) 50. पातंजलयोगदर्शन 1.6 51. वही, 1.10
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