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________________ खण्ड : प्रथम किया गया है 152 हैं समस्त वृत्तियों और क्लेशों के निरोध के लिए यहाँ दो साधन व्यवहृत हुए अभ्यास और वैराग्य । 3 वैराग्य दशा में भी कभी मन बहिर्मुखी हो सकता है, किन्तु निरन्तर अभ्यास से वह अन्तर्मुखता की ओर मुड़ जाता है। 54 मन की स्थिरता का बार-बार प्रयास अभ्यास” तथा लौकिक-अलौकिक विषयों के प्रति ममत्व का न होना वस्तुत: वैराग्य कहलाता है। 56 55 ध्यान प्रक्रिया से अभ्यास और वैराग्य सधता है। वास्तव में, विषयी मन को निर्विषय बनाना ध्यान की उच्चतम अवस्था है। 57 जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम वह ध्यान ही समाधि हो जाता है, उस समय केवल ध्येय स्वरूप का ही भान होता है और अपनी वृत्तियों का अभाव हो जाता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय - सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने आप का ज्ञान उसे नहीं - -सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम समाधि है।58 ध्यान में ध्याता, ध्यान और ध्येय यह त्रिपुटी रहती है। समाधि में केवल ध्येय वस्तु ही रहती है अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय इन तीनों की एकता सी हो जाती है I - धारणा, ध्यान और समाधि में परस्पर इतना ही भेद समझना चाहिए कि दो घण्टे पर्यन्त ध्येय रूप विषय में चित्तवृत्ति को लगाए रखना धारणा, चौबीस घण्टे पर्यन्त एकतान चित्त से ध्येय का चिन्तन करना ध्यान तथा द्वादश दिन पर्यन्त निरन्तर ध्यान को ध्येयाकार कर देना समाधि कही जाती है। यही बात स्कन्द पुराण में भी कही गई है " पाँच नाड़िका (घटिका ) काल पर्यन्त चित्तवृत्ति की स्थिति धारणा, 60 नाड़िका 52. वही, 1.11 53. वही, 1.12 54. भगवद् गीता 6.35 55. (क) पातंजल योगसूत्र 1.13, (ख) योगवासिष्ठ 6.2/67/43 56. वही, 1.15 57. सांख्यदर्शन 6.25 ( महर्षि कपिल ) 58. पातंजल योगदर्शन 3.3 59. स्कन्द पुराण - धारणा पञ्चनाडीका, ध्यानं स्यात् षष्टिनाडिकम् । दिनद्वादशकेनैव, समाधिरभिधीयते ॥ Jain Education International 31 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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