________________
खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
विचारकों ने भी योग का अर्थ समाधि ग्रहण किया है। महर्षि पतंजलि ने योग का अर्थ समाधि किया है अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है।43 इनके ग्रन्थ में योग के आठ अंगों - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का निर्वचन उपलब्ध है। इनमें प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्तिम तीन अन्तरङ्ग साधन कहे गये हैं। बहिरंग साधन यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की सहायता से अंतरंग साधन धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा निरुद्ध चित्त में अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है।
धारणा, ध्यान एवं समाधि इन तीन योगांगों का अत्यधिक महत्त्व इसलिए है कि साधक या योगी इन्हीं के सहारे दैहिक भाव से छूटता हुआ उत्तरोत्तर आत्मोत्कर्ष या आध्यात्मिक अभ्युदय की उन्नत भूमिका पर आरूढ़ होता जाता है।
पतंजलि ने धारणा का लक्षण करते हुए कहा है - आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि देह के बाहरी देश स्थान हैं तथा हृत्कमल, नाभिचक्र आदि भीतरी देशस्थान हैं। इनमें से किसी एक देश में चित्तवृत्ति लगाना धारणा है।14।
भाष्यकार व्यास देशबन्ध के संबंध में लिखते हैं - नाभिचक्र, हृदयकमल, मस्तक, ज्योतिपुंज, नासिकाग्र, जिह्वाग्र आदि स्थानों पर या किसी बाह्य विषय पर चित्तवृत्ति का टिकाव धारणा है।45
व्यास ने अपने भाष्य में चित्तबन्ध के जो आधार बतलाये हैं, उनमें नाभिचक्र और हृदयकमल अभ्यन्तर आधार हैं। ये देह के भीतर स्थित हैं। मस्तक, नासिका का अग्रभाग तथा जिह्वा का अग्रभाग ये देहगत बाह्य आधार हैं। सूर्य, चन्द्र आदि प्रकाशपुंज देहातिरिक्त बाह्य आधार हैं।
निष्कर्ष यह है कि चित्त को किसी एक ध्येय पर एकाग्र करना ही धारणा है और योगसाधना की दृष्टि से यह आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि एकाग्रता के अभाव 43. पातंजल योगदर्शन 1.2 44. वही 45. व्यास भाष्य पृ. 277 46. (क) सदृष्टि द्वात्रिंशिका 24.18 (ख) द्वा. द्वा. पत्र संख्या 149 चित्तस्य धारणादेशे
प्रत्ययस्यैकतानता। ~~~~~~~~~~~~~~~ 29 ~~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org