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________________ भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा खण्ड : प्रथम ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ प्राप्त कर सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है और उसका संसार में पुन: आगमन नहीं होता।40 महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग साधना के शारीरिक प्रकार का भी उल्लेख किया है। तदनुसार किसी एकान्त एवं पवित्र स्थान में कुश, मृगचर्म और उसके ऊपर वस्त्र बिछाकर पद्मासन लगाकर बैठना चाहिए। ठोड़ी को कण्ठकूप में स्थिर कर, जिह्वा को उलटकर तालु में स्थित कर लें तथा होठों को बंद कर लें। दाँतों का परस्पर स्पर्श न करें। इस प्रकार निश्चल बैठकर पैंतालीस बार चुटकी लगाने तक साधक को पूरक, कुम्भक एवं रेचक प्राणायामों का अभ्यास करना चाहिए। सम्पूर्ण इन्द्रियों को उनके विषयों से सर्वथा मुक्तकर चित्त को कहीं भी अन्यत्र नहीं जाने देना चाहिए, इससे वह धारणा एवं ध्यान करने में सक्षम हो जाता है। साधक को अपने चित्त को शुद्ध आत्मा में स्थित करना चाहिए और हृदय में दीपशिखा के तुल्य भगवान के निश्चल रूप का ध्यान करना चाहिए। RICERatopati पातंजल योग दर्शन में धारणा, ध्यान और समाधि योगसाधना का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ योगसूत्र है। यह महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है, जिसे उन्होंने योग का अनुशासन ही माना है। महर्षि पतंजलि का योगसूत्र समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद नामक चार पादों में विभक्त है। उपनिषदों में भी 'योग' का उल्लेख है। यथा 'तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्' अर्थात् योग वही है जहाँ इन्द्रियाँ स्थिर रूप से साधक के वश में हो जाती हैं, किन्तु इस विषय को एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में स्थापित करने का श्रेय महर्षि पतञ्जलि को प्राप्त है। योग शब्द युज् धातु से - घञ् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। संस्कृत व्याकरण में युज् धातु के दो अर्थ हैं - संयोग (जोड़ना) एवं समाधि। भारतीय योगदर्शन में योग शब्द दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। प्राय: सभी योगचिन्तकों ने योग का अर्थ समाधि के रूप में किया है। बौद्ध 40. वही, 3.4.108-109 41. रुधादिगणी, 'युज्' धातु, युजिरयोगे, सिद्धान्तकौमुदी (रुधादिगण) 42. दिवादिगणी, 'युज्' युज् समाधिश्चित्तवृत्तिनिरोध: सिद्धान्त कौमुदी (दिवादिगण) ~~~~~~~~~~~~-~~ 28 cmmmmmmmmmmmmmm Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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