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खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
पातंजल योगसूत्र में जो अष्टांग योग का उल्लेख है वह या तो इन्हीं उपनिषदों का एक अग्रिम चरण है अथवा इन उपनिषदकारों ने यम और नियम को छोड़कर इन . षड़ांगों को ही अपना विषय बनाया है। . इन प्रमुख परवर्ती उपनिषदों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य उपनिषदों में ध्यान संबंधी उल्लेख मिल जाते हैं किन्तु विस्तार भय से यहाँ उन सबकी चर्चा नहीं कर रहे हैं।
उपनिषदों के पश्चात् स्मृतियों का क्रम आता है। स्मृतियों में मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में ध्यान संबंधी उल्लेख उपलब्ध होते हैं।
मनुस्मृति में बताया गया है कि प्राणायाम द्वारा शारीरिक दोषों को नष्टकर धारणा के द्वारा पूर्वजन्मार्जित तथा वर्तमान तक के सारे पापों को दूर कर देना चाहिए तथा प्रत्याहार के द्वारा संयोग या संसर्ग प्राप्त होने पर भी उनसे दूर रहकर नवीन दोष या किल्विष उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए और अधिक देर तक धारणा-ध्यान सम्पन्न हो जाने पर, योगी के अन्त:करण के सर्वथा शुद्ध हो जाने पर जो जीव के शेष बचे दुर्गुण होते हैं, वे सब नष्ट होकर ऐश्वर अर्थात् ईश्वर के सभी गुण उसे प्राप्त हो जाते हैं।38
महर्षि का कथन है कि चित्त की वृत्तियों का सम्यक् निरोधकर ध्यानयोग के द्वारा सूक्ष्म आत्मा को अपने हृदय के अन्तर्गत परमात्मा में अवस्थित देखना चाहिए।39 इसके लिए वेदान्त या आत्म तत्त्व का बार - बार श्रवण, मनन, चिन्तन और समाहित होकर ध्यान करना चाहिए। सारांश यह है कि शरीर के अन्तर्गत परमात्मा को स्थित देखना चाहिए। इसके अधिक सूक्ष्म स्वरूप को स्पष्ट करते हुए महर्षि बतलाते हैं कि मनुष्य के हृदय के अन्तर्गत एक नाड़ीकन्द है, जहाँ से हिताहितसंज्ञक बहत्तर हजार छोटी-बड़ी नाड़ियाँ निकलकर मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर में मन, प्राण, रक्त आदि का संचार करती हैं। उस नाड़ीकन्द के अन्तर्गत चन्द्रमा एक तेजोमय मण्डल है, जिसके अन्तर्गत सूक्ष्म जीवात्मा निर्वात दीपशिखा के समान स्थित होकर सबका संचालन करता है। उस प्रकाशमय ज्योतिपुञ्ज का योगी को निरन्तर ध्यान करना चाहिए। इससे धीरे - धीरे धारणा, ध्यान एवं समाधि की सिद्धि हो जाती है। योग - साधना द्वारा यह साक्षात्कार सम्पन्न हो जाने पर जीव क्रमश: जीवन्मुक्ति, विदेहस्थिति और कैवल्य 38. मनुस्मृति 6.72 39. याज्ञवल्क्य स्मृति 3.4.64 ~~~~~~~~~~~~~~~ 27 ~~~~~~~~~
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