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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
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करने के रूप में ध्यान की कोई प्रक्रिया रही होगी।
'छान्दोग्य' का उपर्युक्त प्रसंग कहीं-न-कहीं षट्चक्र का भेदन करते हुए ब्रह्मरन्ध में स्थित होने की बात अवश्य करता है।
प्राचीन उपनिषदों में श्वेताश्वतरोपनिषद् ऐसा उपनिषद् है जिसमें ध्यान साधना के स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध हैं। उसके प्रथम अध्याय के 14वें श्लोक में कहा गया है कि अपने देव को अरणि और प्रणव उत्तराग्नि करके ध्यानरूप मन्थन के अभ्यास से गूढ़ रूप से रहे हुए परमात्मा को देखें।
इसी प्रकार द्वितीय अध्याय के आठवें-नौवें श्लोक में ध्यान साधना की एक समग्र विधि का निर्देशन हुआ है। उनमें कहा गया है कि सिर, ग्रीवा और वक्षस्थल इन तीनों को उन्नत रखते हुए शरीर को सीधा रखकर मन के द्वारा इन्द्रियों को हृदय में सन्निविष्ट कर विद्वान् ओंकार रूप नौका के द्वारा सम्पूर्ण प्रवाहों को पार कर जाता है। इस प्रकार उपनिषदों में श्वेताश्वतरोपनिषद् स्पष्ट रूप से न केवल ध्यान का उल्लेख करता है अपितु ध्यानविधि का भी निर्देश करता है।
परवर्ती उपनिषदों शीर 'ध्यानबिन्दु उपनिषद' एक ऐसा उपनिषद् है जिसकी विषयवस्तु ध्यान से संबंधित है। इसमें न केवल ध्यान का विवेचन हुआ है अपितु प्राणायाम आदि का भी विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। यह उपनिषद् यम और नियम को छोड़कर आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन छह अंगों का उल्लेख करता है। साधना के इन छह अंगों का उल्लेख न केवल ध्यानबिंदूपनिषद् में हुआ है अपितु अमृतनादोपनिषद् में भी मिलता है। इसी प्रकार झूरीयोपनिषद् में भी इन्हीं षडांगों का विवेचन उपलब्ध है। इससे ऐसा लगता है कि 34. श्वेताश्वतरोपनिषद् 1.14 35. वही, 2.8.9 36. ध्यानबिन्दूपनिषद् 41
आसनं प्राणनिरोध: प्रत्याहारश्च धारणा।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट् ।। 37. अमृतनादोपनिषद्
प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽपधारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडङ्गो योग उच्यते॥
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