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________________ खण्ड: प्रथम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम का वैशिष्ट्य यह रहा है कि उसने बाह्य क्रियाकाण्डों के स्थान पर आध्यात्मिक विशुद्धि हेतु जिस तप और ध्यान साधना का विकास किया था, वे तत्त्व हिन्दू परम्परा में भी यथावत् स्वीकृत रहे हैं। रूप में वेदों, वैदिक परम्परा में अध्यात्म और ज्ञान मार्ग के प्रस्तोता के ब्राह्मण ग्रन्थों और आरण्यकों के बाद उपनिषदों का क्रम आता है। वेदों में स्पष्ट रूप से किसी ध्यान विधि का उल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि अनेक स्थानों पर उनमें योग शब्द का उल्लेख हुआ है; किन्तु योग शब्द सर्वत्र ही योगसाधना या ध्यानसाधना का सूचक हो, ऐसा नहीं माना जा सकता । अनेक संदर्भों में योग शब्द युक्ति या जोड़ के अर्थ में आया है। कुछ वेद मंत्र अवश्य ऐसे हैं जिनमें योग शब्द साधना का वाचक प्रतीत होता है। कुछ प्रसंगों में चित्तवृत्तियों की एकाग्रता अथवा उन्हें अन्तर्मुखी बनाने की प्रार्थना के रूप में भी योग शब्द प्रयुक्त हुआ है 1 सामान्यतया वेद मूल में कर्मकाण्डपरक ही अधिक रहे हैं । ब्राह्मण ग्रन्थ भी मूलत: यज्ञ-याग संबंधी कर्मकाण्डों से भरे हुए हैं। आरण्यकों में अन्तर्मुखी साधना के कुछ सूत्र अवश्य उपलब्ध होते हैं। इनका वास्तविक अर्थ में विकास उपनिषदों में ही देखा जाता है। उपनिषदों को हम कालक्रम के आधार पर दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। प्राचीन उपनिषद् और परवर्ती उपनिषद् । यद्यपि प्राचीन उपनिषदों यथा ईश, केन, कंठ, मुण्डक, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, एतरेय, छान्दोग्य, श्वेत आदि में अध्यात्मपरक अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं, फिर भी ध्यान साधना विधि का स्पष्ट उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होता। ये उपनिषद् मूलतः इन्द्रिय - निग्रह एवं मनोनिग्रह, आत्मानुभूति एवं आत्मस्वरूप आदि की चर्चा तक ही सीमित हैं। फिर भी इन्द्रिय और मन से ऊपर उठकर आत्मानुभूति की दिशा में जो साधनापरक संदर्भ इनमें उपलब्ध हैं वे किसी-न-किसी रूप में ध्यानसाधना से संबंधित माने जा सकते हैं। प्राचीन उपनिषदों में छान्दोग्योपनिषद् में यह कहा गया है कि हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं उनमें से एक मस्तक की ओर जाती है। उसके द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला जीव अमरत्व को प्राप्त होता है। शेष नाड़ियाँ उत्क्रमण का कारण होती हैं। 33 इस प्रसंग में ऐसा प्रतीत होता है कि उपनिषद् काल में चित्तवृत्तियों को एकाग्र 33. छान्दोग्योपनिषद् 8.6.6 Jain Education International 25 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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