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________________ यह अनुभव किया कि यह जैन परम्परा की भी प्राचीनतम पद्धति रही है। फिर उन्होंने उस विपश्यना की पद्धति को जैन आगमों से जोड़ते हुए प्रेक्षा ध्यान' की एक नवीन विधि का विकास किया। यह विधि जहाँ एक ओर विपश्यना या आचारांग आदि की प्राचीन आगमिक ध्यान परम्परा से योजित है वहीं इसमें परवर्ती जैन आचार्य, पातंजल योगसूत्र, हठयोग की परम्परा और आधुनिक मनोविज्ञान का एक सम्मिश्रण देखा जाता है। उन्होंने विपश्यना की या साक्षी भाव की साधना की प्राचीन पद्धति को युग के अनुरूप रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया। इसे जैन ध्यान विधि का एक नवीन मौलिक रूपान्तरण माना जा सकता है। इसी क्रम में विपश्यना और प्रेक्षा की विधि से प्रभावित हो स्थानकवासी परम्परा के आचार्य नानालाल जी म.सा. ने 'समीक्षण ध्यान' का विकास किया। इस विधि में विशेषता यह है कि यह चित्तवृत्तियों के समीक्षण द्वारा चित्त विशुद्धि का प्रयत्न करती है। जहाँ विपश्यना और प्रेक्षा में साक्षीभाव की प्रमुखता है वहाँ समीक्षण ध्यान विधि में साक्षीभाव के साथ-साथ विवेक दृष्टि का सम्मिश्रण भी किया गया है। इसी क्रम में स्थानकवासी श्रमण संघ के वर्तमान आचार्य शिवमुनि ने भी गोयनकाजी के समीप विपश्यना को सीखकर उसे जैन आगमिक परम्परा के साथ संयोजित करते हुए अपनी ध्यान पद्धति प्रस्तुत की है। इसी क्रम में पूज्या साध्वी उमरावकुँवर जी 'अर्चना' ने मुख्य रूप से मुद्राओं पर बल देते हुए मुद्रा ध्यान की एक पद्धति का विकास किया है। ज्ञातव्य है कि भारतीय उपासना पद्धतियों में मद्राओं का साधना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व रहा है। विशेष रूप से पूजा विधान आदि में मुद्राओं को महत्त्व दिया जाता है। जैन परम्परा में भी विभिन्न मुद्राओं के उल्लेख मिलते हैं। विशेष रूप से योगमुद्रा, जिनमुद्रा, वीतरागमुद्रा आदि के उल्लेख हैं जो जैन परम्परा के तंत्र और विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में मिलते हैं। विशेष रूप से 'विधिमार्गकृपा' में आचार्य जिनप्रभ सूरि ने 73 मुद्राओं का उल्लेख किया है। पूज्या साध्वीश्री ने साधना की अपेक्षा कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्राओं को अंगीकृत कर उनके माध्यम से चित्तवृत्ति को एकाग्र बनाने सम्बन्धी निर्देश दिये है। वर्तमान युग में जैन परम्परा में जन्मे आचार्य रजनीश (ओशो) ने ध्यान की विभिन्न विधियों के प्रयोग किये हैं। वस्तुत: उनके द्वारा प्रस्तुत ये सभी ध्यान विधियाँ विभिन्न परम्पराओं से संकलित की गई हैं। अत: जैन ध्यान विधि के विकास की अपेक्षा इनका विशेष महत्त्व नहीं है। क्योंकि जैन परम्परा में जन्म लेकर भी आचार्य रजनीश का दृष्टिकोण व्यापक रहा है। इसलिए जैन ध्यान विधि की ऐतिहासिक विकास यात्रा में उनकी विधियों को सम्मिलित करना सम्भव नहीं फिर भी हम इतना तो कह सकते (12) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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