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________________ का निर्देश करते हैं। उनकी ध्यानसाधना विधि में आगमिक परम्परा से भिन्न कोई परिवर्तन हमें परिलक्षित नहीं होता है । इसी क्रम में आचार्य तुलसी की कृति 'मनोनुशासनम्' महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। यह आधुनिक युग की जैन योग पर एक महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें विशेष रूप से मन के भेद, ध्यानसाधना में मन का स्थान, ध्यान का स्वरूप, ध्यान के भेद, ध्यान - ध्याता - ध्येय आदि का विवेचन उपलब्ध होता है। इस कृति में एक वैशिष्ट्य यह परिलक्षित होता है कि जहाँ हेमचन्द्र ने मन के भेदों की चर्चा में चार मनों का उल्लेख किया है वहाँ इन्होंने उसमें मूढ़ और निरुद्ध इन दो को जोड़कर मन के छह: भेद किये हैं। इसमें उन्होंने विक्षिप्त के पूर्व मूढ़ और सुलीन के पश्चात् निरुद्ध मन को रखा है। इस प्रकार जहाँ पातंजल ने पाँच और हेमचन्द्र ने चार मनों का उल्लेख किया है वहाँ आचार्य तुलसी ने छहः मनों का विवेचन किया है। विशेषकर उन्होंने मिथ्यादृष्टि के लिए मूढ़ और अयोगी केवली के मन के लिए निरुद्ध शब्द का प्रयोग किया है। इस कृति की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें ध्यानसाधना विधि की चर्चा भी की गई है और उसे प्रेक्षा ध्यान के साथ जोड़ने का प्रयत्न भी किया गया है । ध्यान के स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और भावना को लेकर जहाँ आगमिक दृष्टिकोण से समरूपता देखी जाती है वहीं सालम्बन ध्यान के भेद के रूप में पिंडस्थ आदि भेदों को और पार्थिवी आदि धारणाओं को स्वीकार करके शुभचन्द्र और हेमचन्द्र का अनुसरण किया गया है। इसके अतिरिक्त पातंजल योगसूत्र से प्रभावित होकर प्राणायाम सम्बन्धी कुछ विधियों का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ध्यान के सन्दर्भ में इस युग की यह एक समग्र कृति कही जा सकती है। आचार्य तुलसी के 'मनोनुशासन' तक जैन ध्यान विधि में कोई युगान्तरकारी परिवर्तन हुआ हो, यह कहना कठिन है। जैन ध्यान विधि में जो एक युगान्तरकारी परिवर्तन परिलक्षित होता है वह बौद्ध परम्परा से आचार्य सत्यनारायण जी गोयनका द्वारा लायी गई विपश्यना पद्धति के बाद ही परिलक्षित होता है। विपश्यना की यह पद्धति मूलत: हीनयानी बौद्ध परम्परा की मूलभूत पद्धति है जिसके कुछ बीज और आंशिक समरूपता जैन आगम आचारांग में दृष्टिगोचर होते हैं । वस्तुत: यह चित्त की सजगता और साक्षीभाव की साधना का ही एक रूप है । इस पद्धति के भारत आगमन के साथ जैन ध्यानसाधना विधि में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। वह पुन: अपनी मूल धारा से जुड़ने को उद्यत हुई है । सर्वप्रथम आचार्य तुलसी के विद्वान् शिष्य और तेरापंथ के वर्तमान के आचार्य महाप्रज्ञ जी ने गोयनकाजी के विपश्यना के शिविरों में भाग लिया और उस पद्धति को सीख कर . Jain Education International (11) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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