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हैं कि ध्यान के क्षेत्र में उनका जो व्यापक परिप्रेक्ष्य है वह ध्यान की अन्य विधाओं की तरह जैन परम्परा की ध्यान विधि से भी प्रभावित नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म में ध्यान साधना की एक सुदीर्घ परम्परा है, महावीर से महाप्रज्ञ तक इसकी यात्रा में अनेक पड़ाव और मोड़ आये हैं। महावीर के युग की सजगता की ध्यान साधना विधि क्रमश: रूपान्तरित हुई, उस पर योगदर्शन
और फिर तन्त्र का प्रभाव आया और एक स्थिति ऐसी आई कि महावीर की ध्यान साधना विधि का मूल स्वरूप ही विस्मृत हो गया। गोयनकाजी द्वारा जब बुद्ध की मूल ध्यान विधि विपश्यना के रूप में इस देश में पुनर्जीवित हुई तो उसके आलोक में आचार्य महाप्रज्ञ जी का ध्यान महावीर की मूल ध्यान साधनाविधि की खोज में लगा और प्रेक्षा ध्यान विधि का जन्म हुआ, जिसमें महावीर की मूल साधना विधि के आगमिक आधारों को सुरक्षित रखते हुए उनका योग साधनाविधि तथा आधुनिक शरीर शास्त्र और मनोविज्ञान के साथ समन्वय करके प्रेक्षाध्यानविधि को स्वरूप मिला। इस प्रकार जैन परम्परा में ध्यान साधना विधि की महावीर से महाप्रज्ञ तक की यात्रा रोचक और अनेक अनुभवों से परिपूर्ण है। प्रस्तुत कृति में हमने यथाशक्ति उनका परिचय देने का प्रयत्न किया है। आशा है, पाठकवृन्द और विद्वत् जगत् दोनों ही इससे लाभान्वित होंगे।
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