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________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना - वर्तमान में प्रचलित ध्यान पद्धति के परिप्रेक्ष्य में इनके मन में जो भावोद्वेलन हुआ उसी की परिणति 'समीक्षण' ध्यान पद्धति के रूप में हुई। यह शब्द सम् उपसर्ग और ईक्षण के मेल से बना है। सम् का अर्थ सम्यक् रूप से या समभाव पूर्वक और ईक्षण का अर्थ - देखना है। आज का संसार अत्यन्त घोर मोह निद्रा में सुप्त है, वैभाविक परिणतियों, भौतिक उपादानों में विमूढ़ बनकर आत्मविस्मृत होकर वह अहर्निश ऐसी गतिविधियों के साथ जुड़ा है जिनमें व्यक्ति सुख का स्वप्न देखता है, किन्तु सर्वथा दुःख, विषाद तथा संक्लेश से परिपूर्ण है। उनसे छुटकारा तभी मिल सकता है जब वह बहिर्दर्शन से मुख मोड़कर अन्तर्यात्रा की ओर उद्यत हो । वह अन्तर्यात्रा केवल ईक्षण या दर्शन से घटित नहीं होती, वह तो सम्यग्दर्शन से घटित होती है। ईक्षण तो सामान्यदर्शन का पर्याय है जो सत् और असत् दोनों प्रकार का हो सकता है। जब तक उसके साथ सम्यक् नहीं जुड़ता उसे लेकर चलने वाली अन्तर्यात्रा स्वस्वरूप में अवस्थिति की मंजिल प्राप्त नहीं करा सकती। इसी मूल तत्त्व को लेकर आचार्य - प्रवर ने समीक्षण ध्यान पद्धति का सम्प्रवर्तन किया। उसके लिए उन्होंने सबसे पहले भूमिकाशुद्धि पर जोर दिया है। यह भूमिका बहिर्जगत् से सम्बद्ध नहीं है। यह अन्तर्यात्रा से सम्बन्धित है। जब साधक समीक्षण हेतु उद्यत हो तो वह अपनी विशृंखलित चित्तवृत्तियों को विशोधनपूर्वक नियंत्रित करे । अनादिकाल से चित्तवृत्तियाँ बहिर्मुखता लिये हुए हैं। अत एव मन अस्थिरता एवं चंचलता पूर्वक अनवरत भटकता रहता है। उसे सुनियोजित करने के लिए एक विशेष प्रकार की भूमिका अपेक्षित है। जिस प्रकार किसान बीज बोने के पहले खेत की ओर ध्यान देता है, चित्रकार चित्र IT के पहले कांस्य फलक या वस्त्र की ओर ध्यान देता है, उसी प्रकार ध्यानसाधक को चित्त - विशुद्धि पर ध्यान देना चाहिए । झाड़-झंखाड़ से विमुक्त भूमि जिस प्रकार बीज के उगने और पौधे के रूप में वृद्धिंगत होने के लिए उपयुक्त होती है, स्वच्छ कांस्यपात्र या वस्त्रखण्ड सुन्दर चित्रांकन के लिए उपादेय होता है, वैसे ही समीक्षण ध्यान के लिए शुद्ध भूमिका की आवश्यकता है, जो चित्तवृत्तियों के साथ उनके नियन्त्रण से जुड़ी है। यह एक ऐसा कार्य है जिसके लिए साधक को भावनात्मक रूप से अन्तर में जूझना पड़ता है। Jain Education International खण्ड : नवम भूमिका के बाद संकल्प का स्थान आता है। साधक दृढ़ संकल्प के साथ ध्यानयोग में उद्यत रहे। साथ ही साथ उसका परिपार्श्विक वातावरण भी सात्त्विक, - - 24 For Private & Personal Use Only - • www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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