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खण्ड : नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
भी चिन्ता किये बिना एक मात्र अपने आत्मस्वरूप के परिशीलन में संलग्न रहता है। वह सदा एकत्व भावना के साथ अपनी आत्मा में ही रमण करता हुआ दैहिक स्थितियों एवं उपकरण आदि से अपने को भिन्न मानता है। वह सर्व प्रकार की आकांक्षा और आसक्तियों से विवर्जित रहता है। इन्हीं सब तथ्यों का ग्रन्थकार ने इस अध्याय में विश्लेषण किया है।20
मन के अनुशासन की चरम परिणति समस्त बहिर्भावों के विजय के रूप में परिणत होती है वहाँ आत्मभाव परिपुष्ट होता है, आत्मपराक्रम उद्घाटित होता है, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का भान होता है। वहाँ राग-द्वेष भी विलीन होते जाते हैं और साधक वीतरागता की भूमिका की ओर बढ़ता जाता है, यही जिनकल्प-साधना का हार्द है, जिसकी सिद्धि में ध्यान योग की अपनी विशेषता है। जिनकल्प की ऊँची मंजिल तक पहुँचने में ध्यान एक सुव्यवस्थित सोपान का रूप लिये हुए है। धर्मध्यान से प्रारम्भ कर उसकी उत्तरोत्तर भूमिकाओं का संस्पर्श करता हुआ ध्यानयोगी शुक्ल ध्यान में संप्रवृत्त होता है, उसकी अन्तिम मंजिल को पा लेता है, उसकी आध्यात्मिक यात्रा सफल हो जाती है, वह परमात्म स्वरूप बन जाता है फिर उसकी आत्मा और परमात्मा में जरा भी भेद नहीं रहता। आचार्य नानेश का समीक्षण ध्यान :
वर्तमान में प्रचलित जैन ध्यान विधाओं में समीक्षण ध्यान पद्धति भी एक है। स्थानकवासी परम्परा के साधुमार्गी जैनसंघ के अष्टम आचार्य श्री नानालाल जी म.सा. ने 'समीक्षण' के नाम से इस ध्यान पद्धति का सम्प्रवर्तन किया। श्री नानालालजी के गुरुवर्य श्री गणेशीलाल जी म.सा. अपने समय के बड़े ही उच्चकोटि के साधक
और निर्मलचेता महापुरुष थे। उनके गुरु आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. का स्थानकवासी जैनसंघ में अप्रतिम महत्त्व था। वे अपने समय के महान् विद्वान्, प्रवचनकार, क्रांतिकारी आचार्य थे। वे परम ज्योतिर्धर कहे जाते थे। आचार्य श्री नानालाल जी म.सा. को अपने पूर्व पुरुषों के साथ-साथ विशेषत: अपने गुरुवर्य एवं प्रगुरुवर्य की गरिमा विरासत के रूप में प्राप्त थी। धर्मप्रभावक संघनायक होने के साथसाथ वे ध्यान-साधना के अनन्य अनुरागी थे।
20. वही, 7.1-15 ~~~~~~~~~~~~~~~
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