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खण्ड : नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
शुद्ध और सत्प्रेरक हो, भौतिक ऐश्वर्य और बाह्य आकर्षणों से विमुक्त हो, ऐसा वातावरण साधक के अन्तः प्रवेश में सहयोगी बनता है, उससे सहजता आती है। साधक का वेश - परिवेश सभी सात्त्विकता युक्त होना चाहिए ।
साधना में समय की भी नियमितता हो, क्योंकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समय के नियमन का मन पर प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार बाह्य जीवन में समय की सुव्यवस्था का महत्त्व है उसी प्रकार आन्तरिक जीवन में भी समय का महत्त्व है।
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साधक सबसे पहले मन की चंचलता को रोकने के लिए सम्प्रवर्त हो । मन द्वारा ही मन का समीक्षण या सम्यक् वीक्षण करना है । समीक्षण ध्यान एक आन्तरिक प्रज्ञाचक्षु है जिसके द्वारा अन्तरंग को देखा जाता है। बाहर के चर्मचक्षु अवरुद्ध हो जाते हैं वहाँ प्रज्ञा के आन्तरिक चक्षु कार्यशील होते हैं । सम्यक् ईक्षण पूर्वक मनोवृत्तियों को देखने से उन पर लगा हुआ कालुष्य का दाग मिटता जाता है । अन्तर्वृत्तियों को देखने के रूप में ध्यान के समय मन भौतिक आकर्षणों से सर्वथा पृथक् रहे । तदर्थ साधक को अत्यन्त सावधानी से काम लेना पड़ता है। यह केवल निरीक्षण से ही नहीं होता सम्यक् निरीक्षण से होता है, तब वह देखता है राग-द्वेषात्मक विकास, वृत्तियाँ कितनी तीव्र हैं, उन वृत्तियों के उद्दीपन और संवर्द्धन में कौन-कौन से प्रयत्न सफल हो सकते हैं ? इस प्रकार के अनुचिन्तन से परिपूर्ण निरीक्षण, समीक्षण ध्यान की विशिष्ट भूमिका का कार्य करता है। इससे साधक राग-द्वेष और विकारों की वैभाविकता को जाता है। विभाव तो पर हैं, अपने नहीं हैं । यह अन्त: बोध उसे प्राप्त होता है । साथही साथ उन हेतुओं को, निमित्तों को अपगत करने का उत्साह और आत्मबल जागता है, जो इन वृत्तियों को उद्दीप्त करते हैं । जागृत आत्म-पराक्रम कभी निष्फल नहीं होता। यदि यह समीक्षण का क्रम चलता रहता है तो राग-द्वेष आदि विकारी वृत्तियाँ न केवल नियन्त्रित ही होती हैं, बल्कि नष्ट होने लगती हैं।
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समीक्षण ध्यान की अन्तिम परिणति विभावों का अपगम कर आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में संप्रतिष्ठ करना है, जहाँ कार्मिक आवरण विलुप्त हो जाते हैं। इस समीक्षण ध्यान मूलक अन्तर्यात्रा की वह अन्तिम मंजिल है या परम लक्ष्य है, जहाँ आत्मा स्वरूपाधिष्ठित होकर शाश्वत शान्तिमय परम ज्योतिर्मय परमानन्दमय स्थान प्राप्त कर लेती है।
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