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________________ खण्ड: नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम से ही अभिव्यक्त किया गया है। श्रीमद् राजचन्द्र की दृष्टि में ध्यान स्वरूपानुभूति है। वे स्वयं लिखते हैं कि 'परमसत्य तेनुं अमे ध्यान करीये छीये' अर्थात् उनके अनुसार ध्येय ‘परमसत्य' है और यह परमसत्य अन्य कुछ नहीं शुद्ध स्वभाव दशा में अवस्थिति है। 'अध्यात्मराजचन्द्र' में स्पष्ट रूप से लिखा है कि परमात्मा का ध्यान करने से ही परमात्मा बना जा सकता है। किन्तु यह ध्यान सत्पुरुषों के चरण कमल की विनयोपासना के बिना सम्भव नहीं है यह निर्ग्रन्थ भगवान का सर्वोत्कृष्ट वचनामृत है। __इस आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीमद् राजचन्द्र अपने ही शुद्ध परमात्म स्वरूप के ध्यान का निर्देश करते हैं यह ध्यान उनके जीवन का अंग रहा है। उनके सम्पूर्ण जीवन की साधना को हम देखें तो वह ध्यान साधना से ही ओत-प्रोत है। श्रीमद् राजचन्द्र की रुचि धार्मिक कर्मकाण्डों में नहीं रही, वे सदैव आत्म साक्षात्कार और आत्मदर्शन में निमग्न रहते थे। वे स्वयं कहते हैं कि 'हसतां रमतां प्रगट हरि देखु रे' वस्तुत: यह ध्यान साधना निर्विकल्प सहज समाधि की स्थिति है। ध्यान उनके लिए उपदेश का विषय नहीं था, उनके लिए तो वह अनुभूति का विषय था। वह बहिर्मुखता का त्याग कर अपने शुद्ध स्वरूप में अवगाहन की स्थिति है। ध्यान के लिए वे बहिर्मुखता का त्याग आवश्यक मानते थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में ध्यान मात्र चित्तवृत्ति की एकाग्रता नहीं है, अपने आप में अपने शुद्धस्वरूप में डूब जाना है। श्रीमद् राजचन्द्र की ध्यानविधि के सम्बन्ध में श्री ब्रह्मचारीजी लिखते हैं कि “शास्त्रों में ध्यान के अलग-अलग प्रकार बताये हैं, उसमें शास्त्र की मान्यता के अनुरूप वर्णन होता है। परन्तु मुख्य ध्यान तो सत्पुरुषों के वचन में चित्त रहे, मंत्र में ध्यान रहे अथवा पुस्तक का वाचन करे तो उसमें एकाग्रता रहे, यह सब धर्म-ध्यान ही है। अमुक आसन से अमुक प्रकार से ही ध्यान होता है, ऐसा कुछ नहीं है। संसार का आधार कषाय है, अन्तरात्मा सदैव कषाय के निवारण का प्रयत्न करता है- चलते-फिरते यदि उसी अन्तरात्मा में मन रहे तो वही ध्यान है। उसमें अभ्यास की खास जरूरत है।"5 2. अध्यात्म राजचन्द्र, पृ. 443 3. वही, पृ. 444 4. वही, पृ. 445 5. श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगास 13.8.49 बोधामृत प्रथम विभाग, पृ. 34 . wimmmmmmmmmmmmmm 3 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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