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________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना खण्ड: नवम इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्यान के संबंध में श्रीमद् राजचन्द्र का बल किसी विशेष विधि विधान पर नहीं था। उनके लिए ध्यान सदैव आत्म-सजगता था, शुद्ध स्वरूप की अनुभूति थी, अपने में रहने या जीने का अभ्यास था। विपश्यना एवं जैन ध्यान साधना : वर्तमान काल में देश-विदेश में ध्यानयोग का विशेष प्रकार से प्रचार-प्रसार परिलक्षित होता है। इस ओर लोगों में अभिरुचि भी दिखलायी पड़ती है। आज यद्यपि भौतिक दृष्टि से लोगों ने बड़ी उन्नति की है, किन्तु जनमानस अनेक समस्याओं से उद्विग्न है। ज्यों-ज्यों भौतिक उपलब्धियाँ होती जाती हैं त्यों-त्यों अभिलाषायें वृद्धिंगत होती जाती हैं 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तया' भगवान् महावीर की यह उक्ति आज के मानव समुदाय में स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। मानव यह जानते हुए भी कि ये भौतिक प्राप्तियाँ शान्ति और सुख नहीं दे सकतीं इनसे मुख नहीं मोड़ता। यही कारण है कि वह आज सब कुछ पाने पर भी खोया हुआ जैसा है। मानसिक दृष्टि से वह अतीव दुःखित एवं उद्विग्न है। ऐसी स्थिति में वह ध्यान के अभ्यास में आशा की किरण पाता है। ध्यान प्राय: सभी धर्मों में साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और कहा जाता है कि उसके द्वारा सभी मानसिक समस्यायें और स्वयं अर्जित यातनायें भी मिट सकती हैं। वैदिक तथा जैन आदि परम्पराओं के संन्यासी, योगी, ब्रह्मचारी, श्रमण, मुनि आदि आध्यात्मिकजन का इस ओर विशेष ध्यान गया है और वे विविध रूपों में ध्यान के प्रसार का प्रयत्न कर रहे हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों ही श्रमण संस्कृति के दो मुख्य स्तंभ रहे हैं। यद्यपि दोनों की अपनी-अपनी दार्शनिक, तात्त्विक पृष्ठभूमि है किन्तु श्रामण्य के मूल आदर्शों के रूप में उनमें बहुत कुछ सामीप्य या नैकट्य है। बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के आधार पर पिछले कई वर्षों से भारतवर्ष में विपश्यना नामक ध्यान की एक विशेष पद्धति चल रही है। उसके प्रतिष्ठापक-प्रसारक श्री सत्यनारायण गोयनका हैं। उनके अनुसार भगवान् बुद्ध के समय में इस ध्यान पद्धति का ही प्रचलन था। किन्तु ज्यों-ज्यों बौद्ध धर्म अधिक विस्तार पाता गया तो उसके मूल रूप में भी परिवर्तन होता गया। इस धर्म की प्राचीन हीनयान परम्परा में साधक अपने कल्याण को ही सर्वोपरि मानता था, उसका लक्ष्य अर्हत् पद पाना था, किन्तु आगे चलकर जब बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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