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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड : अष्टम
योगिवर्य ने देह को मठ और घर को हृदय के रूपक द्वारा व्याख्यात किया है। जिस प्रकार मठ ईंट-पत्थर आदि से निर्मित होता है, उसी प्रकार देह पाँचभूतों से निर्मित है। मठ न जाने कब गिर जाय, नष्ट हो जाय-कहा नहीं जा सकता, वह विनश्वर है, उसी प्रकार देह भी क्षणभंगुर है। क्षणभंगुर देह को अपना स्थायी आवास या आश्रम न मानकर हृदय में आत्मस्वरूप को जगाओ, उसका अनुभव करो। जब अनुभूतियों का ताना-बाना निरन्तरता पा लेता है तो साधक के मन में एक ऐसी अन्त:प्रेरणा, अन्त:स्फुरणा उत्पन्न हो जाती है, जिससे आत्मा में प्रतिक्षण परमात्मा का ही स्मरण रहता है।
इस पद में प्रयुक्त अजपा-जाप योग का शब्द है। महर्षि पतंजलि ने ईश्वर के प्रणिधान में जप का बड़ा महत्त्व बतलाया है। जब साधक योग में तन्मयता पा लेता है, तब फिर जप करना नहीं पड़ता, स्वयं होता जाता है। अनवरत स्वयं चलता रहता है, इसे अजपा जाप कहा गया है।
जैन योग की दृष्टि से जब आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य सिद्ध हो जाता है, तब आत्मा से अनवरत सतत आत्मभाव परिणत होता रहता है।
आत्मा परमात्मा के ऐक्य भाव का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने लिखा है, वर्षा की बूँद जब समुद्र में चली जाती है तो कोई उसका पता नहीं लगा सकता क्योंकि वह समुद्र के जल के साथ तन्मयता पा लेती है। जब आत्मा की ज्योति मननचिन्तन ध्यान द्वारा परमात्मा में लीन हो जाती है, परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है, तब वह अलक्ष्य होती जाती है। किसी भी प्रकार परिलक्षित नहीं होती। वैसी स्थिति पाकर वह आत्मा आनन्दघन परमानन्दमय बन जाती है।44
आत्मारूपी नगर में श्रद्धा निपुण सूत्रधार या व्यवस्थापक का रूप लिये हुए है। उसी के संकेत निर्देश सम्पूर्ण शासन चलता है। मैत्री आदि भावनाएँ यहाँ का विनोदपूर्ण व्यवहार है। वैराग्य मित्र के रूप में है, जो कभी दूर नहीं होता, साथ नहीं छोड़ता, आत्मरमण ही यहाँ क्रीड़ा है। द्वादश भावना रूपी नदियाँ यहाँ नित्य प्रवाहित रहती हैं जो समता रूपी गहरे जल से परिपूर्ण हैं। ध्यान रूपी हौद सदैव परिपूर्ण रहता है तथा सम्पूर्ण भाव रूप पवन का सदा संचार रहता है।45 44. वही, अन्यपद 59-4 45. वही, अन्यपद 74.3-4 ~~~~~~~~~~~~~~~ 30 ~~~~~~~~~~~~
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