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________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम । करता है। रचनाकार ने यहाँ नगर के रूपक द्वारा आत्मसाधना का जो स्वरूप प्रकट किया है वह बड़ा ही उद्बोधक है। आत्मसाधना में श्रद्धा का सर्वोपरि स्थान है, भावनाएँ उसमें स्फूर्ति और गति का संचार करती हैं, वैराग्य एक मित्र की भाँति है जो सदैव सहयोगी रहता है। ध्यान से आन्तरिक शांति का अनुभव होता है। परमात्मभाव आत्मभाव का समर्थन, साधना में सहजता का समावेश करता है। ___ योग की पद्धति से आत्म-परमात्म भाव के सामंजस्य का बड़ा ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हुए रचनाकार योगिवर्य ने कहा है कि आत्मानुभूतिमूलक प्रेम बड़ा विलक्षण है। यह स्त्री-पुरुष एवं नपुंसक तीनों वेदों से, तन्मूलक भोगानुभूति से परे है। इस प्रेम के आनन्द का अनुभव तो वीतराग प्रभु ही ले सकते हैं। आत्मारूपी बालयोगी, संन्यासी, अल्पवय, अल्पअभ्यासी, अल्पकालिक, सम्यक्त्व युक्त इस देह रूपी मठ में निवास करता है। इड़ा एवं पिंगला नामक नाड़ियों का मार्ग छोड़कर सुषुम्ना नाड़ियों में आगमन करता है। वह आसनस्थ होकर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है। वहाँ वह अनहदनाद युक्त होता हुआ चित्तवृत्ति को ब्रह्मरंध्र में लीन कर देता है। यम-नियम का परिपालक, दीर्घकाल पर्यन्त आसन-साधक, प्राणायाम-अभ्यासी, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान का अभ्यासी साधक शीघ्र ही समाधि अवस्था प्राप्त कर लेता है। आत्मा रूपी बाल संन्यासी संयम के मूलगुणों तथा उत्तरगुणों का संवाद है। पर्यंक आसन का उसको अभ्यास है। रेचक, पूरक, कुंभकात्मक प्राणायाम उसने साधा है। मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है। इस प्रकार योगमार्गयोगसाधना का अनुसरण करता हुआ, उस दिशा की ओर अग्रसर होता हुआ वह बालयोगी स्थिर रहता हुआ, आत्मस्वरूप का चिन्तन करता हुआ, आत्मा द्वारा परमात्मपद का साक्षात्कार करता है। इसके समस्त कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं। हठयोग और राजयोग की पद्धति को जैनयोग के साथ जोड़ते हुए योगिवर्य ने जो समन्वयात्मक भावों का निरूपण किया है, वह निस्संदेह उनकी उदार भावना का द्योतक है। हठयोग और राजयोग की पद्धति के साथ उन्होंने जैन सिद्धान्तों के अनुसार आत्मा के मूलगुणों और उत्तरगुणों को स्वीकार कर योग पद्धति के साथ जोड़ दिया है, उससे उसका रूप आध्यात्मिक बन गया है, क्योंकि मूलगुण, संवेग, निर्वेद, शील, वैराग्य, संयम, समिति, गुप्ति आदि साधना के आन्तरिक पक्षों के साथ जुड़े हुए हैं। rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. 31 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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