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________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम रहे, तब तक उसका कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि कार्यसिद्धि तो तब होती है जब मन की चंचलता दूर हो जाए। विवेक द्वारा ही आत्मा में ऐसा होता है, वैसा होने पर आत्मा परमानन्दमय परमेश्वर के आधीन हो जाती है। उसमें परमात्मभाव का अभ्युदय हो जाता है। यह प्रेयसी और प्रियतम के मिलन का आध्यात्मिक रूपक है। सांसारिक आशा एवं तृष्णा या कामना का बंधन और जंजीर या साँकल का बंधन सर्वथा एक दूसरे के विपरीत हैं। साँकल से बँधा प्राणी अपने स्थान से जरा भी इधर-उधर नहीं हो सकता। किन्तु आशा और तृष्णा की साँकल से बँधा हुआ प्राणी संसार में दौड़ता ही रहता है, भवचक्र में भटकता रहता है। जो आशा-तृष्णा से मुक्त हो जाता है वह स्थिरता पा लेता है, भवभ्रमण से मुक्त हो जाता है। आगे अपनी आत्मा को सम्बोधित कर कहते हैं-आत्मन् ! देहरूपी मठ में क्या सोये पडे हो ? जरा जागकर अपने आन्तरिक स्वरूप को तो देखो। इस देह रूपी मठ की तुम प्रतीति मत करो। जरा भी इसका विश्वास मत करो। यह पलभर में ढह सकता है, नष्ट हो सकता है। इसलिए अपनी हलचल-चंचलवृत्तियों को मिटाकर अपने घर को, अपने हृदय को टटोलो। हृदय रूपी सरोवर में रमण करने वाले आत्मा को पहचानो। देह रूपी मठ में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश इन पाँच भूतों का निवास है। देह रूपी मठ में श्वास रूपी धूर्त दुष्ट दानव प्रतिक्षण छल कर रहे हैं। हे अवधूत योगी! तुम इस बात को समझते क्यों नहीं ? यह पुद्गल से निर्मित है और तू ज्ञानघनज्ञानस्वरूप चेतनामय है। देह तो इन पौद्गलिक जड़ पदार्थों में, भौतिक भोगों में सुख मानती है। इनके संयोग से अनादिकाल से तुम वंचित किये जाते रहे हो और अनन्त चेतनामय स्वरूप भूल बैठे हो, अब तो इस भूल को सुधारो। जरा सोचो, पंच परमेष्ठी का तेरे मस्तक पर निवास है। तेरे घर में सम्यक्त्व रूपी सूक्ष्म बारी-खिड़की है, जिससे होकर तू क्षायिक भाव रूपी ध्रुवतारे के दर्शन कर सकती है किन्तु ऐसी ज्योति दीर्घकालीन अभ्यास के परिणामस्वरूप किसी बिरले ही साधक में उद्भूत होती है। जब तक हृदय में अनेकानेक कामनाएँ तथा सुखभोग-आशाएँ हैं, तब तक आत्मचिन्तन फलित नहीं होता। हृदय की वासनाओं को छोड़कर, आशाओं को मारकर घर में आसन लगा ले, आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाए और अजपा जाप सहज रूप में आत्मचेतनामय संस्फुरण को जागृत करे, जगाये, तब वह परमानन्दमय चैतन्यमूर्ति निरंजन सर्वकर्मबंधनरहित परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है।43 43. वही, अन्यपद 39 ~~~~~~~~~~~~~~~ 29 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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