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________________ यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना खण्ड : अष्टम पतिव्रता वियोगिनी नारी में, जिसका पति कहीं दूर देश चला गया हो, होती है और जो प्रतिक्षण उसकी प्रतीक्षा में आँसू बहाती रहती है। अध्यात्म प्रेम की यह पीर, पीड़ा आत्मा में परम उज्ज्वल परमात्मभावसे संयुक्त होने की प्रेरणा जगाती है, जिसका फल परमात्मा के ध्यान में सतत एकाग्र और अविचल रहना है। इस अन्तर्वेदना या पीड़ा से जो अपने अभीष्ट लक्ष्य में एकाग्र हो जाता है, वह कभी उससे पृथक् नहीं होता। भोग को योग में, वासना को साधना में और मोह को त्याग में परिणत कर देने वाले योगिवर्य के ये पद्य निस्संदेह आध्यात्मिक अमृत के अमर निर्झर हैं। ___इन्हीं भावों से अनुप्राणित होकर योगिराज ने एक विरहिणी के रूप में कहा है- मेरे प्रियतम घर आओ, मैं रात-दिन आपकी बाट जोहती हूँ- मुझ जैसी तो आपको लाखों मिल सकती हैं। मेरे तो आप एक मात्र अमूल्य अनुपम प्रियतम हैं। जौहरी लाल का मूल्य कर सकता है, किन्तु मेरा लाल तो ऐसा है, जिसकी कोई कीमत आँकी ही नहीं जा सकती, जिसके समकक्ष-सदृश कोई है ही नहीं, क्या उसका मूल्य आँका जा सकता है ? मेरे निर्निमेष नेत्र आपका पथ निहारते हैं। जिस प्रकार एक योगी ध्यानसमाधि में अविचल ध्यान में बैठा है, मैं वैसी स्थिति में हूँ, मेरी बात कौन सुने, आपके अतिरिक्त मैं अपनी पीड़ा किसको बताऊँ, मैं किसके समक्ष अपना आँचल फैलाऊँ। आपके मुखदर्शन से ही मेरे मन का आवरण दूर हो सकता है, वह विशुद्धि प्राप्त कर सकता है।41 विरहिणी आत्मा भावाभिव्यंजना करती हुई कहती है, केवल आँचल पकड़ने मात्र से ही आन्तरिक पीड़ा दूर नहीं होगी। परमात्म स्वरूप के लिए मानसिक चंचलता को मिटाना होगा। तभी आत्मा परमात्म स्वरूप में समाधिस्थ बन सकती है। विवेक ने चेतना के पास जाकर विचार-विमर्श किया और समझाया जिससे चेतना ने सुमति को आनन्दघन, परमानन्दमय प्रभु के आधीन कर दिया।42 अपने इस पद में योगिवर्य ने आत्मा में शक्तिसंचय कैसे हो सकता है, इस भाव को रूपात्मक शैली में बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जब तक आत्मा केवल परमात्मा का आँचल पकड़ती रहे, दीनतापूर्वक उनकी कृपा की याचना करती 41. आनन्दघनपदावली अन्यपद 18.3 42. वही, अन्यपद 25.4-5 ~~~~~~~~~~~~~~~ 28 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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