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खण्ड : अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
योगी आनन्दघन जी बताते हैं कि “वीरतापूर्वक आत्मा स्व-स्वभाव या आत्मगुण में उपयोगी बना रहे तो एक दिन अयोगी बन जाता है। वीरता जिसकी याचना मैं वीर प्रभु से कर रहा हूँ वह मेरी आत्मा में ही है। वीरत्व के प्रेरक वीर्य का यथार्थ मूलस्थान, मूलभूत अधिष्ठान या आधार तो आत्मा ही है। यह मैंने आपकी रागद्वेषरहित निस्वार्थ निष्पक्ष वाणी से जाना है।"
आगे प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि वीरत्व की स्थिरता की पहिचान क्या है, किसी आत्मा में वीरत्व कैसे स्थिर हो सकता है ? यह भी कैसे जाना जा सकता है कि किस आत्मा में कितना वीर्य स्थिर हुआ ? इसके उत्तर में इसी गाथा के उत्तरार्द्ध में बताया है कि "ध्यान-विन्नाणे शक्ति-प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे !!39 अर्थात् शास्त्रीय धर्म, शुक्ल ध्यान के विज्ञान का आधार ले कर अपनी शक्ति के अनुसार आत्मा ज्यों-ज्यों ध्यान में आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों वीर्य की कितनी स्थिरता, कितना सामर्थ्य, कितनी ध्रुवता प्राप्त हुई है, यह अपने ध्यान के ज्ञान से जीव स्वयं पहचान सकता है क्योंकि वीर्य की स्थिरता और ध्यान ये दोनों लगभग एकार्थक शब्द हैं। वास्तव में ध्यान आत्मवीर्य की स्थिरता-एकाग्रता का नाम ही है। ध्यान केवल शरीर या मन की एकाग्रता ही नहीं, मुख्यतया आत्मा की स्थिरता है। शरीर, मन और पवन (श्वासोच्छ्वास) की स्थिरता को उपचार से ध्यान कहा जाता है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। इसलिए कहा गया है कि ध्यान और विज्ञान से अपनी आत्मा में निहित वीरत्व या वीर्य की स्थिरता को व्यक्ति पहचान सकता है। ध्यान और विज्ञान की शक्ति से ही आत्मस्थिरता तथा आत्मशक्ति के सामर्थ्य को जाना-परखा जा सकता है।40
अन्य पद :
योगिवर्य आनन्दघन ने चौबीसी के अतिरिक्त भी अनेक पदों की रचना की है। विरहिणी अपने प्रियतम के दर्शन की जिस लगन से प्रतीक्षा करती है, इच्छा करती है, तरसती है, उसी प्रकार योगिवर्य ने आत्मारूपी विरहिणी को परमात्मा रूपी प्रियतम के विरह में अहर्निश प्रतीक्षारत दिखलाया है। आत्मा में यह तीव्रतम उत्कण्ठा है कि मैं परमात्म भाव को प्राप्त करूँ। यह उत्कंठा इतनी तीव्रता लिये हुए है, जितनी एक 39. वही, श्री महावीर जिन स्तुति 24.6 40. अध्यात्मदर्शन (आनन्दघन चौबीसी पर पदमग्न भाष्य) पृ. 543-44 ~~~~~~~~~~~~~~~ 27 ~~~~~~~~~~~~~~~
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