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________________ यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना यही बताना है कि सच्ची एकनिष्ठा, ध्येय के प्रति ध्याता की एकाग्रता ही उसे गन्तव्य तक पहुँचाती है।38 योगी आनन्दघन जी ने इसी प्रकार मोहादि षडूविकारों से परे होकर मुक्तिपदप्राप्ति के इच्छुक भव्य मुमुक्षु आत्माओं को इस स्तुति द्वारा यही बोध दिया है कि बाह्य ध्येय तो निमित्त रूप ही होता है, सच्चा और अन्तिम ध्येय तो ध्याता के शरीर में रहा हुआ आत्मतत्त्व ही है। इसलिए इस निमित्त का नाम मात्र को अवलम्बन लेकर भी भव्यात्मा को स्व-आत्म तत्त्व के साथ ही एकता साधनी है । ऐसा होने से ध्याता और ध्येय की एकरूपता हो जाती है, जो इस स्तुति का खास प्रयोजन है । खण्ड : अष्टम दूसरा एक महत्त्वपूर्ण तथ्य इस स्तुति में गुप्त रहस्य के रूप में शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से यह ज्ञात होता है कि आत्मा जब इन्द्रियों के भोगोपभोगों का त्याग करके आत्मदृष्टि से स्थिर होने का प्रयत्न करता है, तब उसकी बहिर्मुखी चित्तवृत्ति उसे अपने में रमण करते रहने के लिए प्रेरित करती है और विविध मोहक प्रलोभनों से उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास करती है परन्तु स्थितप्रज्ञ आत्मा जब उन बहिर्मुखी इन्द्रियों भ्रामक मोहजाल में नहीं फँस कर आत्मदृष्टि में ही स्थित होने का दृढ़ प्रयत्न करता है तब बहिर्मुखी बनी हुई वह चित्तवृत्ति ही अन्तर्मुखी हो जाती है। यह चित्तवृत्ति ही आत्मा के ऊर्ध्वगामी पद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाती है। फलत: वह अन्तर्मुखी आत्मा ही आत्मस्थित बन कर परमानन्द प्राप्त कर लेती है । इस तथ्य को योगी आनन्दघन जी ने इस स्तुति में रूपक के माध्यम से बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। आत्मा के अनुजीवी स्वगुणों या स्वशक्तियों को प्राप्त करने के लिए जब तक आत्मा में वीरता प्रकट न हो जाय अथवा आत्मा आत्मशक्ति या आत्मवीर्य से परिपूर्ण न हो जाय तब तक स्वगुण या स्वशक्ति का प्रकटीकरण नहीं हो सकता । अतएव प्रस्तुत स्तुति में आनन्दघन जी ने वीतराग परमात्मा से वीरता की याचना की है, आत्मवीर्य कैसे प्राप्त किया जाय, उसका क्रम क्या है ? प्राप्त वीर्य को स्थायी कैसे रखा जा सके। इन सबका समाधान प्रस्तुत स्तुति में किया गया है। 38. अध्यात्मदर्शन, श्री अरिष्टनेमिनाथ जिन स्तवन 22-14-17, पृ. 486-511 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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