SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम राजकुमारी होते हुए भी गार्हस्थिक विवाह के बदले अपने प्राणनाथ के आत्मिक विचारों को अपना कर सर्वत्याग के मार्ग पर बढ़ने का निश्चय करती है, यह उनके भावों की भव्यता है। ज्यों-ज्यों राजीमती आत्मा की आवाज सुनती जाती है त्यों-त्यों वह एकत्व भावना में तल्लीन होकर गहरी उतरती जाती है। नेमिनाथ भगवान को पति के रूप में अपनाने के लिए राजीमती मन-वचनकाया के शुद्ध प्रणिधान पूर्वक, अथवा इच्छादि तीन योगों से उन्हें सच्चे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है अर्थात्-जैसे नेमिनाथ प्रभु ने त्रिकरण, त्रियोग से साधुता एवं मन, वचन, काया से वीतरागता धारण की है, वैसे ही राजीमती भी त्रिकरण योग से या त्रियोग से साधुता एवं वीतरागता स्वीकार करके नेमिनाथ प्रभु की आराधना प्रारम्भ करती है। (ज्ञानदशा से प्रभु धारणकर्ता हैं, भक्तिदशा से पोषणकर्ता हैं तथा वैराग्यदशा से तारणकर्ता हैं।) राजीमती हृदय में निश्चय करती है कि स्वामी के हाथ से ही दीक्षा प्राप्त करने से उसका योगवंचक योग सफल हुआ, स्वामी की आज्ञानुसार दीक्षा-साधुता का यथार्थ पालन करने से उसका क्रियावंचक योग सफल हुआ और स्वामी से पहले ही मोक्ष में जाना सम्भव होने से उसका फलावंचक योग भी सफल होगा। राजीमती सर्वविरति साधु धर्म अंगीकार करके वीतराग परमात्मा नेमिनाथ को सांगोपांग रूप से सर्वतोभावेन हृदय में धारण करती है। आत्मार्थी एवं मुमुक्षु की आत्मा के लिए भी बाह्यचित्तवत्ति का त्याग करके अन्तर्मुखी बनकर परमात्मा वीतराग के पथ का अनुसरण करना और वीतरागता प्राप्त करना अभीष्ट है, यही मार्ग उपादेय है। ___ ध्याता राजीमती अपने उपादान को शुद्ध और सर्वोच्च पदारूढ़ करने के लिए प्रबल निमित्त रूप परमात्मा नेमिनाथ प्रभु को ध्येय मानकर एकाग्रतापूर्वक उन्हीं के ध्यान में तल्लीन होकर प्रभु से पहले मोक्ष गमन करती है। कवि आनन्दघन जी ने ध्याता के लिए राजीमती की तरह एकस्वामित्व-निष्ठा से ध्येय का ध्यान करना आवश्यक बताया है। सम्पूर्ण स्तुति का सार और उद्देश्य ~~~~~~~~~~~~~~~ 25 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy