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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड : अष्टम
अंश भी नहीं है। परन्तु इस स्तुति का गहराई से अध्ययन-चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि इसमें ध्येय (परमात्मा) के साथ ध्याता की एकता सतत ध्यान के कारण जुड़ती है लेकिन बहिर्मुखी चित्तवृत्ति की तरफ आत्मा रूपी पति के आकर्षित हो जाने पर परमात्मा से दूरी बढ़ती चली जाती है। प्रारम्भ की दस गाथाओं तक राजीमती के द्वारा नेमिनाथ स्वामी को मोहाविष्ट, रागातुर एवं सांसारिक प्रीति की ओर आकृष्ट करने के लिए उपालम्भ वचन आदि युक्तियों से प्रयत्न किया जाता है, फिर एक नया मोड़ लिया जाता है, परमात्मा के वीतराग स्वरूप को पहिचानते हुए भी रागाविष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है। फिर चौदहवीं गाथा से राजीमती की मोहदशा कम हो जाती है, वह परमात्मा की वीतरागदशा का ध्यान करके स्व-कर्तव्य का विचार करती हैस्वामी नेमिनाथ मेरी भावना को जरूर समझते हैं, फिर भी वे मेरे मन का समाधान क्यों नहीं करते? कोई-न-कोई कारण अवश्य है जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूँ। उसके अन्तर में परमात्मा (शुद्ध आत्मा) की ओर से अन्त:स्फुरणा होती है- राजीमती! मोहनीय कर्मवश पराधीन बनकर तू यह क्या कर रही है ? किसको उपालम्भ दे रही है ? प्रभु नेमीश्वर तो पूर्ण वैराग्यवान बन चुके हैं। वे वीतरागता को अपना चुके हैं। वे अब सर्वात्मभूत बन गए हैं। अत: तू यदि उनकी सच्ची सेविका-प्रेमिका है तो तुझे उनके जैसी बनना पड़ेगा। तेरे आठ जन्मों के प्रेम की अब इस जन्म में सच्ची कसौटी प्रभु कर रहे हैं। अत: तू अपने प्राणनाथ भगवान नेमिनाथ की तरह ही वीतराग भाव को धारण कर। राजीमती के हृदय में तीव्र मन्थन होता है और वह मोहदशा को छोड़ नेमिनाथ की वीतरागता को आरपार देखती है। वह एकत्व भावना भाती है कि “अब तक तो मैं मोहदशा धारण करके चिन्तन करती थी। सांसारिक दृष्टि से आपके जीवन की घटनाओं का सामंजस्य स्थापित करती थी, लेकिन अब मेरे चित्त में आपका तत्त्वविचार जागृत हो चुका है। आप अपनी भूमिका में जो कर रहे हैं, वह बिल्कुल ठीक है।"
“मैं पतिव्रता हूँ अत: आप ही के मार्ग का अनुसरण करूँ। प्राणनाथ ने तो वीतराग द्वारा अपनाने योग्य मार्ग ही अपनाया है तो मुझे भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर आगे बढ़ना चाहिए।" ऐसा सोच राजीमती स्वयं उस मार्ग पर बढ़ने का दृढ़ निश्चय करती है।
यहाँ पर राजीमती के विचारों में सहज सरलता एवं कृतनिश्चयता है। ~~immmmmmmmmmmmmm 24 mmmmmmmmmmmmmm
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