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________________ यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना खण्ड: अष्टम को आध्यात्मिक सौन्दर्य में बदल देने की अनुपम विलक्षण क्षमता योगिराज साथही-साथ भक्तवर्य श्री आनन्दघन में थी, चेतना और श्रद्धा जीवन के दो मुख्य तत्त्व हैं। चेतना आत्मा के अस्तित्व की बोधिका है, लक्षण स्वरूप है, श्रद्धा सत्यनिष्ठा का प्रतीक है। श्रद्धा चेतना में अध्यात्म का वह रस उँडेलती है जिससे चेतना कृत-कृत्य हो जाती है। योगिराज की चेतना श्रद्धा से यह मांग करती है कि मुझे परमात्मदेव के सौन्दर्य में तन्मय होने की प्रेरणा दो-क्योंकि ऐसा श्रद्धा ही करती है। श्रद्धा के बिना चेतना नेत्रशून्य होती है। नेत्र द्वारा जैसे पथिक को मार्ग सही रूप में दृष्टिगोचर होता रहता है, उसी प्रकार श्रद्धा द्वारा चेतना गतिशील होती है। यदि श्रद्धा कुमार्गगामिनी हो तो चेतना उन्नति की दिशा में प्रयाण नहीं कर सकती, वह गलत राह अपना लेती है। - योगिराज यहाँ योगनिष्णात आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा-'योगदृष्टि समुच्चय' में निरूपित अवञ्चक त्रय का उल्लेख करते हैं जिससे स्पष्ट है कि योग की पुरातन जैन परम्परा से उनकी मानसिकता एवं साधना जुड़ी हुई थी। उन्होंने अपनी अनुभूति द्वारा उन्हें और ऊर्जस्वल और निर्मल बनाया। वे मानते थे कि ध्यानयोग में आगे बढ़ने के लिए सबसे पहले उत्तम गुरु के योग की आवश्यकता है। उनका सान्निध्य प्राप्त करना अपेक्षित होता है, क्योंकि उत्तम गुरु ही प्रवञ्चना रहित होते हैं, अवञ्चक होते हैं। अधम और स्वार्थान्ध तथाकथित गुरु मात्र वञ्चक ही होते हैं। गुरु का योग सध जाने से साधक की क्रियाएँ वञ्चनापरक नहीं होतीं, वे वञ्चनाशून्य होती हैं अर्थात् असत् से रहित होती हैं- सत्वोन्मुख होती हैं। उनके सहारे साधक की गति साधना के मार्गपर अनवरुद्धतया आगे बढ़ती जाती है, उस क्रिया का फल भी बड़ा उत्तम होता है। आचार्य हरिभद्र के शब्दों में जो अवञ्चक होता है वह आत्मा की वञ्चना नहीं करता, उसका श्रेयस् या कल्याण साधता है। जब ये तीनों अवञ्चक प्राप्त हो जाते हैं, तब साधक सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट पथ का अवलम्बन कर उस पर आगे बढ़ता जाता है। तदनुरूप सत्क्रियाएँ करता जाता है। निश्चय ही उनका फल उसे आध्यात्मिक दृष्टि से ऊर्ध्वगामी बनाता है। रचनाकार द्वारा भगवान् शान्तिनाथ की स्तुति में विरचित पद आत्मशांति, अध्यात्मयोग और तदर्थ अपेक्षित ध्यानयोग का बड़ा ही सुन्दर भावचित्र उपस्थित करता है। योगिवर्य बड़े ही भावपूर्ण अभ्यर्थनामय शब्दों में भगवान शांतिनाथ की सेवा में ~~~~~~~~~~~~~~~ 20 ~~~~~~~~~~~~~~~ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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