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________________ खण्ड : अप्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम योग के फलित होने की बात भी नहीं कही जा सकती। इस एकांगी दृष्टिकोण को योगिवर्य ने भक्ति, ज्ञान और योग के समन्वित रूप में प्रस्तुत किया है। इस पद का गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ 'चित्त प्रशस्ति' शब्द योग से संबद्ध है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्ति से योगसाधना फलित होती है। आनन्दघन भक्त होते हुए भी इसीलिए योगिवर्य कहे गये हैं। उन्होंने भौतिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम का पवित्र परिवेश देते हुए उसे मुक्ति की साधना के अनन्य अंग के रूप में परिणत कर दिया है। __ चन्द्रप्रभ स्वामी के स्तवन में रचनाकार ने शुद्ध चेतना और उसकी सखी श्रद्धा के रूपक द्वारा अपने भावोद्गार व्यक्त करते हुए कहा है- चेतना श्रद्धा से कहती है कि मुझे चन्द्रप्रभ स्वामी के मुखचन्द्र को देखने दो। वह तो उपशम रस का कन्द है, देवेन्द्र और नरेन्द्र सब उनकी सेवा करते हैं, वे कलियुग के कालुष्य और दुःख द्वन्द्व से रहित हैं। सखि ! मुझे उनका मुखचन्द्र निहारने दो। वह मुखचन्द्र न तो मैंने सूक्ष्म निगोद में, न बादर निगोद में, न पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय में कभी देखा है। द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायों में भी मैं उस मुखचन्द्र के दर्शन किये बिना जल की रेखा के सदृश निष्फल रही। देवलोक में, तिर्यक् एवं नारक योनि में भी उनका मुखचन्द्र दृष्टिगोचर नहीं हो सका। अनार्यजनों के संसर्ग के कारण दुर्लभ मनुष्यभव में भी वैसा नहीं हो सका। अन्तर्मुहूर्त काल परिमित स्थिति युक्त अपर्याप्त अवस्था में भी वे ज्ञानी परमात्मा मेरे हस्तगत नहीं हुए। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव श्रीचन्द्रप्रभ के दर्शन के बिना अनेक स्थान, काल व्यतीत होते गये। अब तो जिनागमों में बुद्धि निर्मलकर निष्काम भाव से निर्मल भक्ति मुझमें आए। निर्मल भक्ति के योग से ही त्रय अवञ्चक योग की प्राप्ति होती है, जिसके फलस्वरूप सत्पुरुषों का योग मिलता है, तदनुरूप क्रियाएँ भी अवञ्चक होती हैं, आत्मकल्याणकारिणी होती हैं और उनका फल भी अवञ्चक होता है, आत्मोन्मुख समीचीन फल प्राप्त होता है। सद्गुरु के योग से ही अवञ्चक त्रय की प्राप्ति होती है। जिनेन्द्रदेव की प्रेरणा से वैसा सुअवसर प्राप्त होता है, उनकी अचिन्त्य अनिर्वचनीय शक्ति द्वारा मोहनीय कर्म क्षीण हो जाते हैं। प्रभु चन्द्रप्रभ के चरण कमल इच्छित फल प्रदान करने में कल्पवृक्ष के सदृश हैं।31 भौतिक सौन्दर्य के आकर्षण 31. वही, श्री चन्द्रप्रभ स्तवन - 8 ~~~~~~~~~~~~~~~ 19 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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