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________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम यह निवेदित करते हैं, “प्रभुवर ! लोकत्रय के राज-राजेश्वर मेरी कृपया यह विनती सुनें, मैं आपके शांत स्वरूप को कैसे पहचान सकूँ, कृपया मुझे बतलाएँ,” फिर वे आत्मोल्लासमयभाव से व्यक्त करते हैं, मानों प्रभु से प्रेरित होकर ऐसा कहते हैं“आत्मन् ! तू धन्य है जिसे ऐसा प्रश्न करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। तू धीरज धारण कर सुन तो सही, शक्ति का जैसा स्वरूप मुझे प्रतीत अनुभूत हुआ है- वैसा ही यहाँ कथनीय है। मानों जिनेन्द्रदेव योगी, भक्त और साधक के मन में ऐसा भावोद्रेक कर रहे हों। रचनाकार की भाषा से यह व्यक्त होता है। श्री जिनेश्वर देव ने जिन भावों को शुद्ध और जिनको अशुद्ध कहा है, उनको यथार्थ भाव से जानकर उन पर श्रद्धा रखना शान्तिपद पाने का पहला रूप है। आगमों के परमार्थमय भावों के संवाहक, जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्ररूपित शास्त्रों के ज्ञाता सावद्यवर्जन रूप संवर क्रिया के अभ्यासी, मोक्षमार्ग के अनुयायी वीतराग श्री शांतिनाथ परम्परा के अनुपालक सदैव निष्कपट, निर्मल, आत्मानुभव के स्वामी, ऐसे उत्तम गुरु की सेवा, शांति के स्वरूप का बोध पाने का उत्तम मार्ग है। जो समग्र लौकिक जंजालों का त्याग कर, शुद्ध आत्मस्वरूप का आलम्बन कर, समस्त तामसिक तमोगुणमयी वृत्तियों के राग-द्वेष आदि कषायों को त्यागकर, मैत्री, प्रमोद, करुणा आदि सात्त्विक वृत्तियों को स्वीकार करते हैं, वे आत्मशान्ति के स्वरूप को पा सकते हैं।32 ___ आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने में तत्त्व का यथार्थ ज्ञान, आत्मा के शुद्ध भाव का अवलम्बन, वीतरागपथ के अनुगामी, त्यागी, समस्त सावद्यकर्म त्यागी, आत्मानुभव के धनी सद्गुरु का सान्निध्य अत्यन्त उपयोगी है। साधक को साधना में आगे बढ़ने के लिए इन बातों का ध्यान रखना परम आवश्यक है। शांतिस्वरूप का साक्षात्कार कैसे हो, इस अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए और लिखा है- आत्मरूप को केन्द्र में रखकर ही विधि-निषेध की व्यवस्था एवं निर्णय होता है। जिन का क्रियाओं आत्मभाव से वैपरीत्य नहीं है, उनका आचरण करना विधिमार्ग है, जो क्रियाएँ आत्मभाव के विरुद्ध हैं वे निषिद्ध हैं, अकरणीय हैं। इसके अनुसार जो विधिमार्ग और निषेधमार्ग का अवलम्बन करता है, आत्मानुकूल क्रियाएँ 32. वही, श्री शान्तिनाथ स्तवन - 16.1-4 wwwwwwwwwwwwwww. 21 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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