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खण्ड : अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
फिर उन्होंने शुक्ल ध्यान के भेदों का विवेचन किया है। शुक्ल ध्यान में किनकिन लेश्याओं का किस प्रकार समावेश बनता है, उसे उद्घाटित करते हुए उन्होंने लिखा है कि शुक्ल ध्यान के पहले दो भेदों में शुक्ल लेश्या होती है । तृतीय भेद में परम शुक्ल लेश्या होती है। चतुर्थ भेद में जिनेश्वर देव लेश्या रहित होते हैं । '
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इस अधिकार के अन्त में उन्होंने लिखा है कि जो भगवान की आज्ञानुरूप ध्यान के शुद्ध क्रम को जान लेता है उसका अभ्यास करता है वह समग्र अध्यात्म का वेत्ता हो जाता है ।
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ध्यानस्तुति :
उपाध्याय यशोविजय ने ध्यान का शुद्ध स्वरूप, अभ्यास प्रक्रिया, भेद आदि का विस्तृत विवेचन करने के पश्चात् इस अधिकार में ध्यान की वरेण्यता या स्तवनीयता का विवेचन किया है। उसमें निष्णात और सफल हो जाने पर साधक को जो आध्यात्मिक उपलब्धि होती है, वह वास्तव में अत्यन्त महनीय है। अधिकार के प्रारम्भ में ही उन्होंने लिखा है कि जब साधक ध्यान योग में पर - परिपाक - उत्कृष्ट परिपक्वता या सिद्धि प्राप्त कर लेता है तब वह इन्द्र के पद को भी तृण तुल्य समझता है। अतएव आत्मप्रकाशमय, आनन्दबोधमय एवं भवभ्रमण विनाशक ध्यान का सेवन करना चाहिए।
अस्थिर, अज्ञ पुरुषों द्वारा भी विषयों का प्रत्यक्ष रूप में तो आसानी से परित्याग किया जा सकता है किन्तु उन विषयों में विद्यमान राग या रस का उनके द्वारा त्याग नहीं किया जा सकता। ध्यानयोगी ही परमद्युति - परमात्म प्रकाश का दर्शन करने के कारण आत्मतृप्त होते हैं । अतः वे राग को स्वीकार नहीं करते हैं । '
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16. वही, गा. 82
17. वही, गा. 5.17.1-2
ग्रन्थकार ने यहाँ त्याग का बड़ा ही मार्मिक विश्लेषण किया है । भोग्य पदार्थों को छोड़ना मात्र यथार्थ रूप में त्याग की भूमि का स्पर्श नहीं करता, जब तक उन विषयों के प्रति व्यक्ति के मन में राग या रसात्मकता बनी रहती है क्योंकि ऐसा होने के कारण वे परित्यक्त विषय समय पाकर फिर उभार पा लेते हैं और व्यक्ति पतन के
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