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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
जैसे दो राजा अपनी साज-सज्जा के साथ युद्ध करते हैं, उसी प्रकार इन दोनों का युद्ध होता है । अन्त में धर्मरूपी राजा द्वारा मोहरूपी राजा अपने दोनों पुत्रों - द्वेष रूपी गजेन्द्र, राग रूपी मृगेन्द्र सहित मार डाला जाता है । 11
धर्मराज द्वारा मोहराज को यों पराजित कर दिये जाने पर संयमी साधक रूपी व्यापारी अत्यन्त आनन्दित होते हैं और सांसारिक व्यापारियों की तरह वे कृतार्थ होते हुए अपने धर्माराधना रूप व्यापार में संलग्न हो जाते हैं। 12
ग्रन्थकार ने धर्म ध्यान के भेदों का जो अत्यन्त पांडित्यपूर्ण विवेचन किया है वह बड़ा ही विलक्षण है। वह केवल वस्तुपरक नहीं है अपितु अत्यन्त प्रेरणापरक स्फूर्तिप्रद भी है।
खण्ड : अष्टम
धर्मध्यान के ध्याता का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि जिस योगी का मन एवं इन्द्रियाँ विकार रहित हो गये हों वही शान्त दान्त साधक धर्मध्यान का ध्याता प्रकीर्तित हुआ है। 13
यहाँ ध्याता के लिए प्रकीर्तित शब्द का प्रयोग किया गया है, वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है, प्रकृष्टा कीर्तिः प्रकीर्तिः तयाः युक्तः प्रकीर्तितः । यह शब्द प्रशस्तता का द्योतक है। इन गुणों से युक्त पुरुष प्रशस्त या उत्तम कोटि का ध्याता होता है । ग्रन्थकार ने यहाँ गीताकार द्वारा व्याख्यात स्थितप्रज्ञ को स्मरण किया है और कहा है कि वैसे ध्याता में वे सब गुण फलित हो जाते हैं जो स्थितप्रज्ञत्व के साथ जुड़े हैं । 14
शुक्लध्यान के आलम्बन का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है - क्षान्ति, क्षमाशीलता, मृदुता, ऋजुता, निस्पृहता से युक्त छद्मस्थ संयमी साधक परमाणु पर अपना मन लगाकर शुक्ल ध्यान स्वीकार करे, किन्तु वीतराग केवली मन का निरोध कर शुक्लध्यान करते हैं । '
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11. वही, गा. 51-59 12. वही, गा. 60
13. वही, गा. 62
14. वही, गा. 63
15. वही, गा. 73
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