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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
पतंजलि के अष्टांग योग का किसी-न-किसी रूप में उल्लेख प्राय: परवर्ती जैन लेखकों ने किया है, किन्तु उसके उपपादन में उनका अपना जैन सिद्धान्तानुरूप विशिष्ट दृष्टिकोण रहा है।
ध्यानदीपिका'कार को हठयोग मूलक साधना में कोई विशेष आस्था एवं अभिरुचि नहीं थी। यही कारण है कि उन्होंने प्राणायाम को प्रपञ्च रूप, देह और हृदय के लिए क्लेशकारी बतलाते हुए ज्ञानीजनों के लिये अनादृत कहा है।140
इन्द्रियअर्थनिरोधमूलक प्रत्याहार 41 व धारणा का प्रतिपादन करते हुए कहा है- ज्ञानीजनों द्वारा परब्रह्मात्म रूप ध्येय वस्तु में अथवा गुणीजनों के सद्गुणों में, अर्थ आदि के अंग रूप ध्येय में अपने ललाट, नेत्र, मुख पर मन को लीन किया जाता है, उसे धारणा कहा जाता है।142
'योगसूत्र' में धारणा को परिभाषित करते हुए कहा है- अपने देह के किसी अंग विशेष अथवा सूर्य, चंद्र, तारा आदि किन्हीं बाह्य पदार्थों में से किसी एक पर चित्त को टिकाना धारणा है। यहाँ उपाध्याय सकलकीर्तिचन्द्र ने चित्त को एकदेश पर टिकाने में परब्रह्म के स्वरूप, गुणियों के गुण, अर्हत् आदि के अंगादि को भी स्वीकार किया है। इसका कारण उनका अध्यात्मपरक दृष्टिकोण है।
साधारणत: धारणा विषयक श्लोकों को देखने से सहसा यह भ्रम होता है कि इनमें ध्यान की परिभाषा दी गई है या धारणा की। सूक्ष्मतया पर्यवेक्षण करने से यह प्रकट होता है कि यद्यपि ध्येय वस्तु के रूप में परब्रह्म के स्वरूप आदि को भी लिया गया है किन्तु वहाँ मन की लीनता प्रत्येकतानता एकाग्रता रूप नहीं है अतएव वह ध्यान से पहले की स्थिति है।
तदनन्तर धर्मध्यान, शुक्लध्यान के भेदों का संकेत करते हुए कहा गया है कि योगी पापभोग से विरत होकर ध्यान का आश्रय ले।143
140. वही, 100 141. वही, 102 142. वही, 103-104 143. वही, 105 ~~~~~~~~~~~~~~~
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