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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
धर्म के सहायक के रूप में मैत्री आदि चार भावनाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया है।144
ध्यान में साधक किस प्रकार स्थित हो, इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि ध्यान-अभ्यासी पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर ध्यान हेतु स्थित हो। ध्यान के समय में उसका मुख सुप्रसन्न रहे, मन में धैर्य या सहिष्णुता रहे।145
फिर पिण्डस्थ ध्यान, तत्संबंधी धारणायें पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान का उन्होंने वर्णन किया है जिसमें आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिच्छाया है। तत्पश्चात् धर्मध्यान, शुक्लध्यान के भेदों का विस्तार से वर्णन किया है जो जैन सैद्धान्तिक परम्परानुगत है। यह ग्रन्थ संकलनात्मक है, फिर भी ग्रन्थप्रणेता ने विभिन्न विषयों के प्रतिपादन में जो अपने श्लोक उपस्थापित किये हैं, प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण हैं।
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144. वही, 106-107 145. वही, 117
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