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खण्ड : सप्तम
कि जो सदाचार से भ्रष्ट हैं, प्रवंचना द्वारा लोगों को ठगते हैं, जो केवल साधुलिंग या भेष धारण किये रहते हैं उनके द्वारा किया जाने वाला ध्यान शुद्धिपरक नहीं होता । जिनका चित्त सदा विभ्रान्त रहता है उनकी कुत्सित चेष्टाओं को तो देखो। जो संयत का रूप धारण करते हुए अपना संसार - भवभ्रमण बढ़ा रहे हैं, उनका मानवजन्म पाना निष्फल है। 136
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
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आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में इसी विषय को बड़े विस्तार के साथ कहा है जिसका इन श्लोकों में संक्षेप में सार संगृहीत हुआ है।
आगे उन्होंने लिखा है कि आत्मधर्म का मूल ध्यान ही है, वही मोक्ष का साधन है किन्तु अशुभ ध्यान हेय है जिसे मिथ्यावादी जन प्रदर्शित करते हैं । 137
ध्यान को परिभाषित एवं व्याख्यायित करते हुए उन्होंने लिखा है - जिनेश्वर भगवन्तों ने एकाग्रचिन्ता -निरोध को ध्यान कहा है । दृढ़ संयमी मुनि को भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ध्यान होता है, छद्यस्थों को होने वाला ध्यान भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त टिकता है। वीतराग प्रभु के योगनिरोध ध्यान होता है, वह कर्मसमूह का घातक या नाशक होता है । चिन्तन को एकाग्र करना किसी एक ध्येय पर रोकना ध्यान है। उसके अतिरिक्त मन की अवस्थाएँ भावना हैं अथवा पदार्थ विशेष के चिन्तन रूप अनुप्रेक्षण ध्यानसंतान-ध्यान का ताना-बाना कहा गया है। 138
तत्पश्चात् आर्त्त एवं रौद्र ध्यान का वर्णन करते हुए उनके अनिष्टयोगज, इष्टवियोगज, रोगार्त तथा वियोगार्त चार भेदों का वर्णन किया है।
धर्म ध्यान के स्वरूप का वर्णन करने से पूर्व ग्रन्थकार ने तन्मूलक पृष्ठभूमि के रूप में अपने प्रेरक उद्गार प्रकट किये हैं। उन्होंने लिखा है - दुष्ट दोषपूर्ण अनुष्ठान, दूषित आचार से विरत संयमी साधक मन की शुद्धि के लिए शम, प्रशान्त भाव रूप सागर में प्रवेश कर योग के आठों अंगों का चिन्तन करे। 139
136. वही, 59-60
137. वही, 61
138. वही, 64-66 139. वही, 97
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