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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम P से कर्मक्षय के परिणाम स्वरूप मोक्ष होता है, वह ध्यान द्वारा साध्य ग्रन्थकार ने आगे कहा है कि अपनी आत्मा के प्रयोजन परम लक्ष्य की सिद्धि के लिए संयमी साधक को चाहिए कि वह धर्म ध्यान स्वीकार करे। 134 ध्यान रूपी सुधारस का पान करने की प्रेरणा देते हुए आगे उन्होंने लिखा है कि असत् कल्पनाओं से परिपूर्ण अर्थ - प्रयोजन को परित्याग कर मुमुक्षुओं ने धर्मध्यान को समाश्रित किया, जो समस्त गुणों का संस्थान आश्रय है। " जन्ममरण आदि को स्वीकार कर धर्मध्यान में अभिरत बनो। अविद्या के अन्धकार का परित्याग कर मोहनिद्रा को छोड़कर दोषों का वर्जन कर स्थिर होकर ध्यान रूपी अमृत रस का पान करों । । 135 ध्यान के अधिकारी या पात्र का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि संयमी मुनि ही प्रायः ध्याता, ध्यान का अधिकारी हो सकता है, गृही नहीं होता क्योंकि परिग्रह आदि में निमग्न होने के कारण उसका चित्त चंचल रहता है। वे लिखते हैं खरस्यापि हि किं शृङ्गं खपुष्पमथवा भवेत् । तथांगनादिसक्तानां नराणां क्व स्थिरं मनः ॥ 133 इसके आगे उन्होंने लिखा है कि गर्दभ के सींग होना, आकाश में पुष्प होना कदाचित् संभव हो जाय किन्तु अंगनादि में आसक्त गृहीजनों का मन ध्यान में स्थिर नहीं हो सकता । 'धर्म दीपिका' का यह श्लोक 'ज्ञानार्णव' के निम्नांकित श्लोक से तुलनीय है खपुष्पमथवाश्रृंगं, खरस्यापि प्रतीयते ! न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिर्गृहाश्रमे ॥ ध्यानदीपिकाकार ने आचार्य शुभचन्द्र द्वारा व्यक्त किये गये भाव को शब्दान्तर द्वारा प्रकट किया है। तथाकथित साधुवेषधारी ध्यान करने का प्रदर्शन करते हैं, उनका ध्यान कदापि शुद्ध नहीं होता इस तथ्य को उद्घाटित करते हुए उन्होंने लिखा है 133. वही, 46-47 134. वही, 5.2.48 135. वही, 52.54 Jain Education International 60 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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