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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
सिद्धि-मुक्ति रूपी नगरी के द्वार तक पहुँचाने वाले ध्यान की साधना नहीं कर सकते।
ध्यानयोगी अपने अभीष्ट विषयों की ओर आकृष्ट पाँचों इन्द्रियों से अपने मन को खींच लेता है, पृथक् कर लेता है। जो इन्द्रियों का निरोध नहीं कर पाता उसके ध्यान नहीं सधता। कषायों का शमन करने और इन्द्रियों को जीत लेने के बाद साधक को चाहिए कि वह अपने चित्त को संकल्पवर्जित बनाये।
ध्यान का संबंध मन के साथ है, मन चल-अचल है, कभी टिकता है, कभी दौड़ता है इसलिए उसे वश में करना चाहिए। जिसने मन को वश में कर लिया मानों समस्त जगत् उसका वशवर्ती हो गया।127
__ ध्यान की उत्तम फल निष्पत्ति का संकेत करते हुए लिखा है कि निरालम्बनआलम्बन रहित, निराकार-आकार रहित, अमूर्त, नित्य आनन्दमय शुभ ध्यान रूपी प्रासाद पर आरूढ़ योगी का सत्त्व, स्वात्म स्वरूप स्तंभ की ज्यों दृढ़ हो जाता है। जिस प्रकार अग्नि के लव-छोटे से कण द्वारा काठ का बहुत बड़ा ढेर जल जाता है उसी प्रकार ध्यान के लव से कर्म रूपी ईंधन जल जाता है।128
इसी का आगे और विस्तार करते हुए कहा है जैसे कमलिनी के पत्ते पर स्वभावत: जल नहीं टिकता, जैसे पानी के मध्य में स्थित पाषाण लिप्त नहीं होता, जैसे स्फटिक रज से आच्छादित होने पर भी मलिन नहीं होता, वैसे ही उत्तम ध्यान में रत साधक पापों से लिप्त नहीं होता।129
___ ध्यान की आदेयता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा - परमानंदास्पद सूक्ष्म, अपने अनुभव से लक्ष्य उत्तम, अनाहतनाद का साधक ध्यान करे।
यहाँ ग्रन्थकार ने हठयोग की उच्चतम साधना से लभ्य अनाहतनाद की ओर संकेत किया है जहाँ हठयोगी दिव्यनाद का अनुभव करते हैं। ग्रन्थकार का आशय यहाँ परम दिव्य स्वरूप का गुणन, अनुभवन और अनुव्यंजन है।130
127. वही, 76, 77, 79 128. वही, 100-101 129. वही, 104-105 130. वही, 115
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