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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
अनन्त गुणों से आकीर्ण-व्याप्त, सुखमय, जन्म-मरण रहित, देवपूज्य, मुक्ति पदारूढ़ सिद्ध भगवान का ध्यान करना चाहिए।121
उन्होंने आगे और उल्लेख किया है कि योगवेत्ता द्वैतभाव में अद्वैत को स्थापित कर अन्तरात्मा और परमात्मा, ध्यान और ध्येय दोनों को एक रूप में परिनिष्ठित कर परमात्मस्वरूप अपनी आत्मा का एकाग्रभाव से चिन्तन करें, ध्यान करें।
वह ऐसा चिन्तन करे कि मैंने आध्यात्मिक आनन्द का साम्राज्य प्राप्त कर लिया है। मैं केवलज्ञानरूप ज्योतिर्मय भास्कर हूँ, परमात्मस्वरूप हूँ। संसार रूपी सागर का मैं परित्याग कर चुका हूँ, मैं निरञ्जन, सर्वकर्मावरण रहित हूँ, समस्त लोक के अग्र भाग में अवस्थित परमात्म स्वरूप हूँ।
जो आत्मा के ध्यान में लीन होकर निरंजन निर्विकार परमात्मा का दर्शन, साक्षात्कार करता है उसके नेत्रों से आनन्द के अश्रु गिरने लगते हैं और वे आत्मोल्लास से रोमांचित हो जाते हैं।122
रचनाकार ने आगे अष्टांगपूर्वक पातंजलयोग का उल्लेख करते हुए कहा हैयम, नियम, करण-आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, समाधि, धारणा और ध्यान ये योग के आठ अंग हैं। ज्ञानिजनों को चाहिए कि वे इन्हें यथावत् रूप में समझें। सम्पूर्ण विधिपूर्वक यदि इनकी आराधना की जाय तो सत्पुरुषों, साधकों के लिए ये मुक्ति के हेतु बन सकते हैं।123
रचनाकार ने आठ योगांगों की चर्चा करते हुए ध्यान का सबसे अन्त में वर्णन किया है। धारणा का समाधि के बाद वर्णन किया है। यह जो व्यतिक्रम हुआ है, उसका कारण छन्द की यथावत् व्यवस्थित रूप में स्थापना करना है। छन्द की रचना में गुरु, लघु आदि के भेद से जो क्रम है, वह योग के आठों अंगों को क्रमश: देने में घटित नहीं होता। अत: इनको आगे, पीछे करने का आशय ग्रन्थकार द्वारा किया गया क्रमभेद नहीं है।
121. वही, श्लोक 39-41 122. वही, श्लोक 47-50 123. वही, श्लोक 51-52 ~~~~~~~~~~~~~~~
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