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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में सब धातुओं से विनिर्मुक्त ज्ञानस्वरूप, निरञ्जन, निरावरण, कर्मनिर्मुक्त है, मोक्ष की जो आकांक्षा करते हैं, उन्हें उसी का ध्यान करना चाहिए।
_सन्तोष रूपी अमृत में निमग्न, सुख-दु:ख का परिज्ञाता, शत्रु-मित्रभाव से सर्वथा अस्पृष्ट सर्वत्र सदैव समभाव युक्त, राग-द्वेष से पराङ्मुख, ज्ञानात्मक दिव्य प्रभा राशि से समायुक्त, आध्यात्मिक लक्ष्मीयुक्त, श्रीमान् समस्त जगत् के उपकारक, शाश्वत आनन्द एवं सुख से परिपूर्ण अपनी आत्मा का ही ध्यान करना चाहिए।
निर्मल शुद्ध स्फटिक के सदृश सर्वज्ञत्व रूप गुण से विभूषित, परमात्म गुणोपपन्न अपनी आत्मा ही ज्ञानीजनों के लिए ध्येय रूप में स्वीकार करने योग्य है।
मुमुक्षुजनों द्वारा षट्चक्र, चार पीठ इत्यादि समस्त बाह्य साधनोपकरणों का परित्याग कर रूपविवर्जित शुद्ध आत्मा पर ही अपना ध्यान एकाग्र करना चाहिए।
ध्यान योग के अभ्यासी साधक इस प्रकार ध्यान का अभ्यास कर शरीर में अवस्थित आत्मा के यथार्थ स्वरूप का अवलोकन करते हैं।
अपनी देह में विद्यमान किन्तु वस्तुत: देहवर्जित परमपदारूढ़ सर्वोत्तम परमात्म पद पर अवस्थित अपनी निरञ्जन आत्मा को ही ध्येय आलम्बन के रूप में स्वीकार कर ध्यान करना चाहिए।120
लेखक का दृष्टिकोण नितान्त आध्यात्मिक या विशुद्ध आत्मपरक रहा है। अतएव उन्होंने ध्यान की उस भूमिका का विवेचन में संस्पर्श किया है जहाँ लौकिक उपादान गौण हो जाते हैं। इसीलिए उन्होंने षट्चक्र आदि हठयोग निरूपित विधाओं को विशुद्ध एवं आध्यात्मिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं दिया।
आकाशरूप आकाश की ज्यों अपने आप में अवस्थित कल्याणकारी होने से समस्त जगत् के स्वामी क्रिया और काल आदि से अतीत, सांसारिक सृष्टि से उन्मुक्त, विलक्षण सर्वतेजमय, केवलज्ञान से परिपूर्ण केवलानन्द में समाश्रित देवों द्वारा पूज्य वीतराग प्रभु केवल ध्यान द्वारा ही प्राप्य हैं।
120. योगप्रदीप श्लोक 9-16, 22 ~~~~~~~~~~~~~~
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