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________________ खण्ड: सप्तम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम वासनाओं से विमुक्त हो जाता है। इसके प्रतिकूल जो सराग ध्येय का आलम्बन लेकर ध्यान करता है वह रागभावापन्न हो जाता है, क्षोभ व क्रोध आदि कषायों से जुड़ता जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान का जैसा आलम्बन होता है, ध्येय का जैसा स्वरूप होता है, ध्याता भी उसी के अनुरूप परिणत हो जाता है। श्रीमद्भागवत में भी ऐसा उल्लेख है कि ध्याता की ध्येय के अनुरूप परिणति हो जाती है। जब तक ध्याता के चित्त में ध्येयानुरूप अनुभवन नहीं होता, तब तक उसे ध्यान का पुन:पुन: अभ्यास करना चाहिए।92 श्वेताश्वेतर उपनिषद् में भी ध्यान के संदर्भ में प्रकारान्तर से ऐसा ही वर्णन हुआ है। रूपातीत ध्यान : निरंजन, निराकार, सिद्ध, मुक्त, परमेश्वर, अमूर्त विशुद्ध चैतन्य स्वरूप है, चिन्मय है। अतएव उन्हें रूपातीत कहा गया है। उनके परम शुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपातीत ध्यान कहा गया है। ग्रन्थकार ने इस संबंध में विवेचन करते हुए लिखा है - निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी ग्राह्य-ग्राहक भाव अर्थात् ध्येय और ध्याता के विकल्प से रहित होकर तन्मयता, सिद्धस्वरूपता का अनुभव करता है। योगी जब ग्राह्य-ग्राहक भाव के भेद से ऊपर उठकर तन्मयता प्राप्त कर लेता है, तब कोई भी आलम्बन न रहने के कारण वह सिद्धात्मा में लीन हो जाता है। ध्येय सिद्धस्वरूप के साथ उसकी एकरूपता हो जाती है। वह अन्तरात्म भाव से ऊँचा उठकर परमात्म भाव में लीन हो जाता है। ध्याता और ध्येय का यह ऐक्य ही समरसी भाव कहा गया है।4 90. वही, 10.13 91. श्रीमद् भागवत 11.9.22 92. ब्रह्मसूत्र 4.1.1 93. श्वेताश्वतरोपनिषद् 1.14 94. योगशास्त्र श्लोक 10.1-4 wwwwwwwwwwwwwwwww 41 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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