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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
ध्यान का क्रमिक अभ्यास :
___साधक पहले पिण्डस्थ, पदस्थ आदि आलम्बन युक्त ध्यान का अभ्यास करे। पहले स्थूल ध्येयों का फिर क्रमश: सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम ध्येयों का चिन्तन करे। इस क्रम को स्वीकार कर ध्यान करने वाला तत्त्ववेत्ता तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
इस क्रम को अपनाकर ध्यान में आगे बढ़ने वाला साधक अपने ध्येय को सिद्ध कर लेता है।
अन्त में, ग्रन्थकार ने उपर्युक्त ध्यान-साधना की महत्त्वपूर्ण फलनिष्पत्ति का उल्लेख करते हुए कहा है कि यह चार प्रकार का ध्यान अमृत स्वरूप है। इनमें जो योगी निमग्न हो जाता है, वह जागतिक तत्त्वों का साक्षात्कार कर आत्मविशुद्धि अधिगत कर लेता है।
पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का विवेचन हुआ है, वह धर्म ध्यान से सम्बद्ध है। आगम साहित्य में प्रकारान्तर से उसके भेदों का विवेचन हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र ने आगम निरूपित भेदों का भी योगशास्त्र' में वर्णन किया है।
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धमध्यान के प्रकारान्तर से भेद :
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान को ध्येय रूप में स्वीकार कर ध्यान करने से उन ध्येयों के अनुसार धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थान विचय नामक चार भेद होते हैं।96 आज्ञाविचय ध्यान :
सर्वज्ञदेव की धर्मदेशना, आज्ञा, किसी भी प्रकार के तर्क से अबाधित है, पूर्वापरविरोध से विवर्जित है। तात्त्विक रूप से उसके अर्थों का चिन्तन करना, उन्हें आलम्बन के रूप में स्वीकार कर उन पर मन को एकाग्र करना आज्ञाविचय ध्यान है।
सर्वज्ञों के वचनों का यह वैशिष्ट्य है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्वों का स्पर्श करते हैं, हेतुओं द्वारा खंडित नहीं होते। वे स्वामी की आज्ञा के रूप में ग्रहण करने 95. वही, 10.5-6 96. वही, 10.7 ~~~~~~~~~~~~~~~ 42 ~~~~~~~~~~~~~~~
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