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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम रत्नों की कान्ति से जिनके चरणों के नख चमक रहे हैं, देवकृत दिव्य पुष्पों के समूह के कारण जिनके समवसरण की विशाल भूमि भी संकीर्ण हो गई है, गर्दन ऊपर उठाकर मृगादि पशुओं के झुण्ड जिनकी मनोहर ध्वनि का पान कर रहे हैं, जिनका जन्म-जात वैर शान्त हो गया है- ऐसे सिंह और हाथी आदि विरोधी जीव जिनकी उपासना कर रहे हैं, जो समस्त अतिशयों से सम्पन्न हैं, केवलज्ञान के प्रकाश से युक्त हैं, परम पद को प्राप्त हैं और समवसरण में स्थित हैं, ऐसे अरिहन्त भगवान के स्वरूप का अवलम्बन करके किया जाने वाला ध्यान-'रूपस्थ-ध्यान' कहलाता है।87 .RAS GGLEE रूपस्थं ध्यान का एक अन्य प्रकार : राग-द्वेष, मोह आदि विकारों से रहित, शान्त, कान्त, मनोहर आदि समस्त प्रशस्त लक्षणों से युक्त, इतर मतावलम्बियों द्वारा अज्ञात योगमुद्रा को धारण करने के कारण मनोरम तथा नेत्रों से अमन्द आनन्द का अद्भुत प्रवाह बहाने वाले जिनेन्द्रदेव के दिव्य भव्य रूप का निर्मल चित्त से ध्यान करने वाला योगी भी रूपस्थ ध्यान करने वाला कहलाता है।88 WER BREE AVM फलोद्गम: रूपस्थ ध्यान के अभ्यास करने से तन्मयता को प्राप्त योगी अपने आपको स्पष्ट रूप से सर्वज्ञ के रूप में देखने लगता है। इसका अभिप्राय यह है कि जब तक साधक का मन वीतराग भाव में रमण करता है तब तक वह वीतराग भाव की ही अनुभूति करता है। जो सर्वज्ञ भगवान हैं निस्सन्देह वह मैं ही हूँ, यों सोचने से योगी की सर्वज्ञ भाव में तन्मयता हो जाती है।89 आलम्बनानुरूप फल/निष्पत्ति : जो वीतराग भाव का ध्यान करता है वह वीतरागता का अनुभव करता हुआ 87. वही, 9.1 88. वही, 10.8-10 89. वही, 10.11-12 ~~~~~~~~~~~~~~~ 40 ~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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