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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम उद्भव यद्यपि भूमि में ही होता है किन्तु सभी भूमियों में रत्न नहीं होते। यही बात ध्यान के साथ है। वह सभी आत्माओं में उत्पन्न नहीं होता। ज्ञानीजनों ने ध्यान का कालमान अन्तर्मुहूर्त बताया है, यह निश्चित है कि इससे अधिक काल पर्यन्त ध्यान का स्थिर रह पाना दुष्कर है। किन्तु यह अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रकट होने वाला ध्यान भी इतना अधिक शक्तिशाली होता है कि जिस प्रकार वज्र क्षण भर में बहुत बड़े पर्वत को तोड़-फोड़ डालता है उसी प्रकार ध्यान कर्मों के उस समूह को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है जो आत्मगुणों का घात करते हैं। __ समुद्र में इतना अपार अबाध जल भरा पड़ा है कि यदि कल्पों तक भी कोई उसे अपने हाथों से उलीचता जाये तो समुद्र को खाली नहीं कर पाता, किन्तु प्रलय काल में जो प्रचण्ड वायु चलती है इसमें उस समुद्र को न केवल एक बार वरन् अनेक बार अविलम्ब खाली कर डालने की शक्ति रहती है। वही स्थिति अन्तर्मुहूर्त ध्यान की शक्ति की है। उसके द्वारा घातिकर्मों के समूह अविलम्ब नष्ट, ध्वस्त और क्षीण कर दिये जाते हैं। ध्यान के माध्यम से आत्मा द्वारा परमात्म स्वरूप में चित्त का स्थिरीकरण करने से परमात्म पद प्राप्त हो जाता है।133 तदनन्तर ग्रन्थकार ने वैराग्य, ज्ञान, असंग चित्त की एकाग्रता, दैहिक और मानसिक आदि दुःखों पर विजय इन्हें ध्यान के सधने के कारण कहा है।134 ध्यान योग के बाधक या प्रतिबन्धक कारणों का निरूपण करते हुए उन्होंने लिखा है, आधि-मानसिक पीड़ा, व्याधि-दैहिक रोग, विपर्यास-अतथ्य को तथ्य मानने का आग्रह, प्रमाद, आलस्य, विभ्रम,-भ्रान्ति, अलाभ-फल की अप्राप्ति, संगता-ज्ञान होते हुए भी भौतिक सुखों में आसक्तता, अस्थिरता, अशान्तता, इनसे योग में अन्तराय या विघ्न होता है।135 उन्होंने योगी की सुदृढ़ अवस्था का विवेचन करते हुए लिखा है कि चाहे कोई व्यक्ति ध्यानयोगी के शरीर में कंटक चुभोये, कोई उसकी देह पर चन्दन आदि का लेप करे, वैसी बाह्य दृष्टि से दुःखद एवं सुखद स्थितियों में वह न रोष करता 133. वही, 8.172-176 134. वही, 8.177 135. वही, 8.178 ~~~~~~~~~~~~~~~ 71 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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